महेश कुशवंश

12 फ़रवरी 2013

ये जो दरवाजे पर पहरेदार सा ....


ये जो दरवाजे पर 
पहरेदार सा  खड़ा है 
नीम का पेड़
हमारे पुरखों सा   है 
वर्षों से इसकी छाव में 
कई पीढियो ने 
चलना सीखा,
कभी घुटनों 
कभी लकड़ी की तिपहिया से लडखडाते क़दमों 
इसी की छाव में 
निपटाए गये भाइयों के झगडे 
बहुओं की नोंक-झोंक 
सास बहुओं की मुहा चाही 
ये हर उस दर्द का साथी है 
जो मेरे घर ने सहा 
इस घर से जब भी कोई निर्जीव निकला 
इसने  झुक कर दो आंशू बहाए 
उस निर्जीव ने भी इसकी ठंडी छाव  महसूस की 
फिर आगे की यात्रा की 
बच्चों की कितनी किलकारियों का गवाह  है ये 
सभी शादियाँ यही तय हुयी 
सभी बरातें यहाँ बज रहे बैंड पर झूमती निकलीं 
और बैंड के साथ 
पालकी मैं बैठकर बहुयें 
इसी पेड़ के नीचे उतरीं और
घर की मालकिन बनीं 
ये जो पेड़ है ना 
दरख़्त बन कई बार टूटा 
सही इसने कई आँधियों
कई ओले ,
फिर  फूटे किल्ले और बन गए दरख़्त 
नीम की निबौरियाँ ,
कोमल कोपलें बनी औसधियाँ 
और बनी टूटी हड्डियों के लेप
इसके आसपास , कई बार खेल गया फाग 
होली के रंग 
कई बार जले दिए 
गूंजे पटाके 
कहीं नेपथ्य में गूंजी त्योहारी हसी 
गौरैया के घोसले , बाया के लटकते घर कंदील से ,
.......................
नीम  ने  सहेजे 
न जाने कितने परिवार 
आज ..
ठूंठ खडा है 
आस पास चबूतरा तो बना है 
मगर अब यहाँ कोई नहीं बैठता 
न ही लगती है कोई पंचायतें 
आखिरी बार की सभा ने 
टांग दिया था रस्सियों से 
राधा - मंगलू को 
और 
चीखते रह गए  थे उसके  मा और बापू 
उसके बाद ऐसा सन्नाटा गूंजा 
फिर कभी नहीं हुआ आबाद 
इस घर का फिर कोई नहीं लौटा शहर से 
इसकी छाव की कोई जरूरत नहीं रही  किसीको 
तब से ये नीम 
हो गया ठूंठ ....
हमेशा के लिए 
रिश्तों से भी , संबंधों से भी ...
आह ... नीम ...

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भावाभिव्यक्ति-
    आभार आदरणीय ||

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  2. आखिरी बार की सभा ने
    टांग दिया था रस्सियों से
    राधा - मंगलू को
    और
    चीखते रह गए थे उसके मा और बापू

    नीम इस दृश्य का भी गवाह बना और शायद इसी लिए अब ठूंठ है ...

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  3. आखिर इंसान ने ही इसे ठूंठ बना दिया।
    सोचने पर विवश करती रचना श्रेष्ठ रचना।

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  4. तब से ये नीम
    हो गया ठूंठ ....
    हमेशा के लिए
    रिश्तों से भी , संबंधों से भी ...
    बरसों के रिश्ते ऐसे भी टूट जाते हैं...गहन अनुभूती

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  5. तब से ये नीम
    हो गया ठूंठ ....
    हमेशा के लिए
    रिश्तों से भी , संबंधों से भी ...
    आह ... नीम ...
    बेहद गहन भाव रचना के ... मन को छूती पोस्‍ट

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  6. बहूत ही उत्कृष्ट और प्रेरक अभिव्यक्ति आपके अनमोल भावों को पढकर दिल में बहुत हर्षाया हूँ.

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  7. पूरी कविता एक चलचित्र की तरह चली .... और आखिरकार समापन दुखांत ही हुआ। ऎसी सामाजिक त्रासदी अंतर्मन को झकझोर कर रख देती है।

    कुश्वंश जी, आप भावों की धार हो ... एक बार फूटी नहीं कि बाढ़ ही आ जाती है। पाठक तैरते-तैरते पार जाने की कोशिश में किनारे पर ही डूब जाता है।

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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