महेश कुशवंश

24 नवंबर 2011

बॉस की खपच्चियों पर....



कभी कभी सोचता हूँ
मक्के के खेत में
बॉस की खपच्चियों पर
फटा पुराना कुरता पहने
सर पर फूटा घड़ा धरे
मै खड़ा हूँ
पक्षियों से दाने बचाने
क्या बचा पाता हूँ ?
मुझे तो नहीं लगता
उस बूढ़े की मेहनत के दाने
उसे संपूर्ण मिल पाते होंगे  
खाद, बीज और  पानी का कर्ज चुकाते
कुछ बच गए जो दाने
उन्हें साहूकार झटक लेता है
साल भर घर की रोटी दाल का कर्ज
कुछ बिटिया  के हाथ पीले करने का कर्ज
भी तो भरना है
और सबसे बड़ी ये भूंख जो है
कुछ भी तो बचने नहीं देती
मैं सोचता हूँ
खपच्चियों में जड़ा, कसा
मै उस किसान से अच्छा हूँ
जो  बूढ़ी माँ की भूख से
बाबूजी की अंधी आँखों से
बुधिया की फटी साड़ी से , और  
दो बड़ी होती लड़कियों से
लड़ते हुए
अपनी भूख से हार जाता है
और आत्म हत्या की कोसिस करके
जेल चला जाता है
उसे जेल की वो रोटी अच्छी नहीं लगती
आखिर पूरे घर को भूखा रख
कैसे भरे  वो अपना  पेट
मै जोर जोर से हिलने लगता हूँ
उसके  पेड़ पर दाना नोचने
एक तोता जो बैठ गया था
मुझे अपना कर्त्तव्य याद आ जाता है
मै उस तोते को उड़ाने में लग जाता हूँ
क्योकि किसान के न होने से
मेरी जिम्मेदारी बढ़ जो जाती है
मै निर्जीव
जो हो सकता है, करता हूँ
तुम क्यों नहीं करते ?
उस बेचारे ने तो  खुद को सौप कर
तुम्हे अधिकार जो सौपा था
तुम्हे राजा बनने के लिए
राजा नहीं बनाया था
काश तुम समझ पाते .

-कुश्वंश

35 टिप्‍पणियां:






  1. आदरणीय कुश्वंश जी
    सस्नेह अभिवादन !

    भाईजी ,आपकी कविताएं भावनाओं के धरातल पर बहुत मजबूती से खड़ी प्रतीत होती हैं -
    मैं सोचता हूं
    खपच्चियों में जड़ा, कसा
    मै उस किसान से अच्छा हूं
    जो बूढ़ी मां की भूख से
    बाबूजी की अंधी आंखों से
    बुधिया की फटी साड़ी से ,
    और
    दो बड़ी होती लड़कियों से
    लड़ते हुए
    अपनी भूख से हार जाता है
    और आत्म हत्या की कोशिश करके
    जेल चला जाता है
    उसे जेल की वो रोटी अच्छी नहीं लगती
    आखिर पूरे घर को भूखा रख
    कैसे भरे वो अपना पेट !?

    आऽऽह्… ! निःशब्द करती पंक्तियां !

    एक श्रेष्ठ रचना के लिए साधुवाद!

    बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. एक अतिसंवेदनशील रचना जो निशब्द कर देती है

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  3. मै जोर जोर से हिलने लगता हूँ
    उसके पेड़ पर दाना नोचने
    एक तोता जो बैठ गया था
    मुझे अपना कर्त्तव्य याद आ जाता है
    मै उस तोते को उड़ाने में लग जाता हूँ
    क्योकि किसान के न होने से
    मेरी जिम्मेदारी बढ़ जो जाती है
    मै निर्जीव
    जो हो सकता है, करता हूँ
    तुम क्यों नहीं करते ?

    किसानो की पीड़ा छलक रही है आपकी रचना से... संवेदनशील रचना

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  4. पाठक गण परनाम, सुन्दर प्रस्तुति बांचिये ||
    घूमो सुबहो-शाम, उत्तम चर्चा मंच पर ||

    शुक्रवारीय चर्चा-मंच ||

    charchamanch.blogspot.com

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  5. निःशब्द करती रचना.... संवेदनशील सृजन....
    सादर....

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  6. मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना ..

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  7. बहुत मार्मिक और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

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  8. समसामयिक मार्मिक रचना

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  9. बहुत ही खुबसूरत भावपूर्ण शब्द रचना.....

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  10. वाह, सुंदर कविता। मन के विचारों को उद्वेलित करने में समर्थ।

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  11. मै निर्जीव
    जो हो सकता है, करता हूँ
    तुम क्यों नहीं करते ?
    उस बेचारे ने तो खुद को सौप कर
    तुम्हे अधिकार जो सौपा था
    तुम्हे राजा बनने के लिए
    राजा नहीं बनाया था
    काश तुम समझ पाते .
    bahut hi badhiyaa

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  12. मन का अंतर्द्वंद दिखाती उत्कृष्ट रचना. गरीबी एक अभिशाप है...दिन रात मेहनत करता किसान क्या अपनी और अपने परिवार की भूख मिटा पाता होगा ? ...क्या सरकार अपने महलों में बैठकर इस बेचारगी को समझ सकेगी कभी ? जय जवान और जय किसान के नारे को बुलंद करना ही होगा.

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  13. भावमय करते शब्‍दों का संगम ...सार्थक एवं सटीक अभिव्‍यक्ति ।

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  14. संवेदनशील और सटीक रचना।

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  15. मै निर्जीव
    जो हो सकता है, करता हूँ
    तुम क्यों नहीं करते ?
    उस बेचारे ने तो खुद को सौप कर
    तुम्हे अधिकार जो सौपा था
    तुम्हे राजा बनने के लिए
    राजा नहीं बनाया था
    काश तुम समझ पाते .

    bahut khoob likhaa hai apne.

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  16. संवेदनात्मक प्रस्तुति !

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  17. बहुत ही खुबसूरत संवेदनशील रचना.....

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  18. बहुत ही सुंदर रचना लिखी आपने बधाई....
    नई पोस्ट में स्वागत है

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  19. सामायिक रचना ...दिल को छू गई
    गहरी सोच के साथ लिखी गई लेखनी

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  20. खेत में खड़ा निर्जीव लकड़ी का पुतला तो किसान के र्प्रती अपना कर्त्तव्य निभाता है - किन्तु जिन्हें यही किसान "राजा" बनवाते हैं - वे किसानों के प्रति अपने कर्त्तव्य कब पूरे करेंगे ?

    जब चिड़िया खेत चुग जायेगी - तब???

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  21. ओह - मेरी टिपण्णी नहीं दिख रही ....

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  22. बहुत मार्मिक और हृदयस्पर्शी है आपकी प्रस्तुति.
    दिल को कचोटती हुई,संवेदनशील उत्कृष्ट रचना.

    प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,कुश्वंश जी.

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  23. मेरा ब्लॉग आपके पसंदीदा ब्लोग्स में शामिल नही है शायद.
    पसंद आये तो शामिल कीजियेगा न.

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  24. उसे जेल की वो रोटी अच्छी नहीं लगती
    आखिर पूरे घर को भूखा रख
    कैसे भरे वो अपना पेट...
    संवेदनात्मक प्रस्तुति ,वाह !

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  25. बहुत ही सटीक भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति.

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  26. कुश्वश जी नमस्कार, बहुत सुन्दर भाव है कविता के मेरे ब्लाग पर भी आपका स्वागत है।

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  27. मैं दिनेश पारीक आज पहली बार आपके ब्लॉग पे आया हु और आज ही मुझे अफ़सोस करना पड़ रहा है की मैं पहले क्यूँ नहीं आया पर शायद ये तो इश्वर की लीला है उसने तो समय सीमा निधारित की होगी
    बात यहाँ मैं आपके ब्लॉग की कर रहा हु पर मेरे समझ से परे है की कहा तक इस का विमोचन कर सकू क्यूँ की इसके लिए तो मुझे बहुत दिनों तक लिखना पड़ेगा जो संभव नहीं है हा बार बार आपके ब्लॉग पे पतिकिर्या ही संभव है
    अति सूंदर और उतने सुन्दर से अपने लिखा और सजाया है बस आपसे गुजारिश है की आप मेरे ब्लॉग पे भी आये और मेरे ब्लॉग के सदशय बने और अपने विचारो से अवगत करवाए
    धन्यवाद
    दिनेश पारीक

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  28. नमन कुशवंश जी नमन.शुरुवाती पंक्तियों में ही झकझोर के रख दिया.मर्म की रेखा सरकती रही , भारत का मानचित्र ही खींच दिया.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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