महेश कुशवंश

14 जून 2016

फादर्स डे के बाद का दिन



आज फिर नींद नही आई
पता नहीं क्यो
ऐसे तो नींद  हर रात मे  बड़ी मुश्किल से आती है
यहाँ से वहाँ
चहलकदमी करता मैं
मुड़कर वापस बिस्तर को देखता हूँ
तो नेपथ्य से गूँजती है
अजीब सी  आवाज़
शायद सो गई है वो
अभी तो खाना खाया था साथ मे
इतनी जल्दी
कैसे सो जाती है वो
क्या कुछ भी नहीं चलता उसके मस्तिस्क मे
जो उड़ा डे नींद
बिस्तर पर लेटकर भी छत देखने की बेचैनी
मेरे हिस्से मे ही क्यों
जागती आँखों मे गोल गोल घूमते  अनुत्तरित प्रश्न
बिस्तर को और कठोर बना देते है
कमर के दर्द मे तो
कठोर बिस्तर मे ही आराम मिलता है
डाक्टर ने बताया था
अब तो ये और भी कठोर हो गया है
पीठ से भी ज्यादा
डाक्टर ने तो ये भी कहा था तनाव मत लेना
?????
वहा,
वो, कमरा,
जो बंद है
बेटे का है
वो उस कोने मे ,
बेटी का भी है जादुयी  कमरा
मैं बेटे बेटी को याद करने लगता हूँ
नींद नहीं आ रही तो क्या करूँ ......
मैं कुछ पल पहले के खाने के द्वंद  की सोचने लगता हू
आज खिचड़ी ही खा लो
कुछ बन नहीं रहा
हाथ पैर ही नहीं उठ रहे
लौकी, तरोई टिंडे , बैगन  और  ये खिचड़ी
मन  न होने पर भी अच्छी लगती है,
खिचड़ी न जाने कब की हजम हो गई
भूख लगने लगी तो याद  आने लगा अतीत
मैंने तो कहा था आज समोसा खाने का मन है
तुमने खिचड़ी बना दी
तुम भी हद करते हो
समोसे हजम कर पाओगे
खिचड़ी खाओ , और सो जाओ
कल कुछ अच्छा बनाऊँगी ......
कल दिवाली है क्या ....?
मैं किससे पूछ रहा हू , कौन जाग रहा है मुझे सुनने
कैसे नींद आ जाती है तुम्हें
मैं याद करने लगता हूँ
कल मॉर्निंग वॉक मे गुप्ता जी
छिपा कर पकौड़ी लाये थे
उन्होने दोस्तों के लिए रात मे छिपा कर रख ली थी
समोसे बन जाते तो दोस्तों को खिलाता
पूरे दिन मे बस मॉर्निंग वॉक  हृदय झकझोर देता है
मिसेज गुप्ता पर चटकारे लेकर बात करते है दयाल साहब
अपने सह प्रोफ़ेसर को भूल जाते है
और बरसों की भाभी जी  माडल बन जाती है
और भाभी जी भी
इतनी सुबह सुबह
इतनी करीने  से सजी धजी
मॉर्निंग वॉक कभी मिस नहीं होने देती
जिससे बात कर ले , वो ईर्ष्या का पात्र तो बनता ही है
रोज देर से लौटने का ताना भी अच्छा लगता है
चौबीस घंटे मे बस
मॉर्निंग वाक मे योवन  लौट आता है
जो पूरे दिन , होर्लिक्स बना रहता है
चलो  फादर्स डे , आने वाला है
पिता होने का गर्व , याद आ जाएगा
लैपटाप पर,स्काइप मे बच्चे दिखेंगे
दादू कहेंगे , कम्पुटर मे लिपटेंगे तो
आँखों मे पानी भर जाएंगा
सुबह सब मित्र रूमाल लेके आएंगे
और फादर्स डे की कहानी
अपने तरीके से सुनाएँगे
मिसेज गुप्ता भी दुपट्टे से आसू पोछती नज़र आएंगी
और फादर्स डे भी मदर्स डे हो जाएगा
फादर्स डे के बाद का दिन बेहद , भारी हो जाता है
टनों भारी ....

-कुशवंश




7 जून 2016

जेहन से एक उछला पत्थर



मेरे जेहन से एक पत्थर उछला
मैंने सोचा 
उसके हृदय मे लगा 
उसने मुझे देखा ही नहीं
मैंने सोचा शायद मेरा भ्रम है 
पत्थर शायद उछला ही नहीं
मैंने रास्ते से कटीली झाड़ियाँ बटोरीं
और उसके निकास पर बिछा दी
वो उनपर पैर रखकर चला गया
मैंने देखा कुछ दूर जाकर उसने पैर के काटें निकाले
और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा 
मैंने उसके घर को रूख किया 
और उसके पड़ोसी के घर चला गया
उसकी पत्नी की अल्ल्हड्ता पर चर्चा की 
पड़ोसी ने मेरे मन की थाह ली 
और उसके अंतर वस्त्र के रंग खोल दिये
पति के जाने के बाद चित्रित 
रंगीन और गुलाबी सोच के न जाने कौन कौन से आसमानी  रंग 
उसके ही नहीं मेरे भी अपभ्रंशित मन मे 
जो भरे थे 
आकार लेने लगे 
मैं और वो पड़ोसी  
न काम पर जा सके 
न अपना मन्तव्य हल कर सके
वो शाम को कब आया 
मुझे उसमे दिलचस्पी जाग चुकी थी 
पूरे मोहल्ले मे खुसुर फूशूर थी 
क्या मेरा मन्तव्य हल हो रहा था 
उसकी खूबसूरत पत्नी छज्जे पर आई 
साथ मे आया ...... वो 
इतना प्रसन्न , जितना मैंने कभी नहीं देखा था 
उसने न मुझे देखा , न पड़ोसी को 
और पत्नी का हाथ थामे 
अंदर चला गया 
..........
दिन बीते 
समय बीता
पड़ोसी की लड़की , सब्जीवाले के साथ भाग गई 
और शर्म से , पत्नी मायके
पड़ोसी , चौराहे पर टून्न पड़ा रहता है 
मुझे  वहाँ से कोसों दूर , प्रागैतिहासिक गाव का रुख करना पड़ा 
वहा .भी .... किसी ने मुझे टिकने नहीं दिया 
गाव की हरीभरी  चौपाल मे 
जातिवादी बीज बो दिये थे मैंने 
कालांतर मे मटरू ने मेरा हृदय निकाल लिया 
और फेंक दिया , कुए मे 
महीनों सड़ता रहा मैं , मेरी सोच 
अब भी मेरे साथ थी 
आदमी को आदमीयत से काटने की सोच 
न जाने किस लोक से आई थी 
जो मर कर भी जीवित थी ....

-कुशवंश




3 जून 2016

प्रश्न अनुत्तरित...



तुमने मेरे लिए क्या किया
ये ज्वलंत सवाल
गाहे बगाहे
जीवन  को छलनी करता रहा
और मैं आगे
और आगे बढ़ता रहा
मैंने सोचा
वाकई गहरा है ये पूछना
तुमने क्या किया
एक शून्य हो जाता है
मेरे चारो तरफ
और मैं उन शून्य हुये
गुब्बारे में घुसा , उल्टा होता रहता हू
बलून मे कोई द्वार नहीं होता
न ही निकलने का कोई रास्ता
बलून फूट भी नहीं सकता
जो मिल जाये कोई  विस्त्रत आकाश
आंखे बंद होते ही
फिर अवतरित हो जाता है
वही अनसुलझा प्रश्न
क्या कुछ भी नहीं किया मैंने
प्रश्न तो मात्र प्रश्न है
उत्तर तो तलासना ही पड़ेगा
एक ऐसा उत्तर जो सिर्फ सवाल न हो
गुलाब की पंखुरिया जब
मुरझाने लगती है
तो नहीं रह जाती कोई सुंगंध
न रहे
मगर गुलाब का अतीत तो है
रेशमी , कोमल और झंकृत करने वाला स्वर
गुलाबी प्यार मे ही तो निहित है
इस प्रश्न पर क्यों छा जाती है खामोशी
जब ढेरों ख्वाहिशें
रूबरू होने लगती है
कभी हाथ पकड़ कर , मेरे दुख मे शामिल हुये
कभी बिना काम , घर मे ही रह जाते
न जाते ओफ़ीस
कभी जल्दी आते और कहते
चलो आज कहीं चलते है
सिनेमा ही देख आते है
न हो ..... मंदिर ही चलते है
ख्वाहिशें भी इत्ती सी होती है
और ये इत्ती सी कब
जीवन को उलट पलट कर देती है
कब प्रश्न दर प्रश्न बन जाती है
पता होते हुये भी ...... किसी को पता नहीं होता
और समय  निकल जाने के बाद
हाथ नहीं आता
कोई भी उत्तर... किसी भी तरह का
तुम ठीक कहती हो
मैंने किया ही क्या है  ....?
उत्तर तो मुझे ही ढूँढना  होगा
और तुम्हें जो स्वीकार्य हो बताना भी होगा
झुर्रियां पड़े हाथों मे
ताकत पैदा करनी होगी
और प्यार की वो तपिश फिर से जगानी होगी
जो कभी नहीं जागी
या जागी तो  अनुभूति कैसी हो
नहीं हुयी
प्यार की पेंगे और दुनिया को समेटने वाले हाथ  
अब क्यूँ .... टूटने को हैं
झुर्रियां तो .... उस बच्चे को भी होती हैं जो जन्म ले रहा है
फिर क्यों झुर्रियां दिखा कर
चुके से हो जाते हो
उठो जागो और आसमान को जमी पर उतार दो
क्या कर सकते हो तुम
दिखा दो ...
शायद प्रश्न का उत्तर मिल जाये
कुछ नहीं किया तुमने ।
 
 
-कुशवंश







 

2 जून 2016

.......बाबा .........












रात के ग्यारह बजे थे
तेज रफ्तार गाड़ी 
घर को भागी जा रही थी
फर्राट , कोई रोक टॉक नहीं 
न ही लाल लाल चेहरे किए,
इस पर, उस पर ताना कसते, चेहरे
न ही आगे निकालने की होड
न ही पीछे आते गाड़ी के हार्न का शोर
सब कुछ एकदम शांत 
अचानक आगे मोड पर 
एक अस्सी साल के
राम नामी दुपट्टा ओढ़े साधू
गाड़ी की चपेट मे आने से बचे
या यू कहूँ 
ची.............. के साथ उनसे लगभग टकरा ही गई थी 
हाथ मे लटका डिब्बा दूर जा गिरा
बाबा गाड़ी से चिपक के पड़े थे
दिन होता तो शायद
सबक सीखने वालों की भीड़
मुझे सबक सिखाने को आगे आ गई होती
रात थी कोई नहीं था 
मैंने गाड़ी रोकी 
बाबा को उठाया 
गनीमत थी बाबा उठ गए 
उन्हे चोट बिलकुल नहीं थी 
बच गए लल्ला........बाबा ने उठने के लिए मेरा कंधा 
पकड़ लिया था 
लल्ला .......... मैं  चौका 
जाना पहचाना शब्द 
मेरे गाव की भाषा 
मुझे बाबा का चेहरा जाना पहचाना लगा 
मैं आश्वस्त न नहीं था 
चेहरे को गौर से देखा 
घनी सफ़ेद दाढ़ी के बीच 
छिपे चेहरे को देखा
अन्यास "ईमानदार" बाबा लगे मुझे 
मेरे गाव के 
लगभग बीस साल पहले 
न जाने कहाँ खो गए थे 
गाव ने तेरहवी भी कर दी 
दोनों बच्चे.... सर मुड़ाए 
पिता के मर जाने का शोक मानते रहे 
सुखी दादी ....... असमय...... हो गई बूढ़ी
बाबा ... कौन बाबा... बाबा ने हाथ चेहरे पर कर लिये ...और 
शायद मुझे ....पहचान गए थे 
वो मुझसे ... भागने लगे थे ...
मैं आश्चर्यचकित था 
लगभग बीस साल पहले खोये बाबा मेरे सामने थे 
मैंने उन्हें जकड़ कर पकड़ लिया था 
बाबा .... कहाँ चले गए थे
मैंने जबर्दस्ती उन्हें कार मे बैठाया 
शायद वो मेरे साथ आना चाहते थे 
न चाहते तो भाग सकते थे 
मैं उन्हे घर ले आया 
और रात भर उनकी कहानी सुनता रहा 
मेरे सामने थे एक कर्ज मे दबा किसान 
जिसकी भूमि बंधक थी बैंक मे 
फसल बर्बाद हो चुकी थी 
अमीन ..... ऋण चुकाने के नाम पर 
तहसील हवालात मे डालना चाहता था 
और जब भी आता....... रुपये ले जाता 
छोड़ने की ऐवज मे 
घर मे फाँके थे दो छोटे बच्चे
एक शादी को बहन
खटिया  लगे माँ बाप... भी मेरे जिम्मे
दो और भाई थे ... अपनी ग्रहस्ती मे मस्त 
एक रात मै...... जिम्मेदारियों से भाग खड़ा हुआ 
सबको रोता छोड़कर 
और किसी की सुध नहीं ली
शायद जिम्मेदारिया निपटाने का कोई और रास्ता नहीं बचा था 
.... बाबा ... तुम...... कमजोर थे ......तुम्हारा दस साल का बेटा 
सारी जिम्मेदारियों को समहालके 
चैन से रह रहा है 
भरे पूरे परिवार के साथ
और माँ भी है ..... उसपर प्यार लुटाने को 
त्ंहे क्या मिला 
भगवान मिल गए क्या ...?
जिम्मेदारियों से मुक़ाबला करते तो परिवार रूपी भगवान मिलते 
भीख मे कोई ....... सुखी नही रहता 
मैंने पूछा 
परिवार से मिलोगे क्या 
बाबा के आँखों से अविरल धारा बह रही थी 
वो... मुझे बड़े स्नेह से देख रहे थे 
लल्ला...... किसी को बताना मत मैं जिंदा हू ......
मैं तो बीस साल पहले ही मर गया था 
बाबा चलो घर तुम्हें सब ठीक से रखेंगे 
बेटा ....... मैं  बहुत कमजोर निकला 
जिम्मेदारियों से भाग कर साधु बन गया 
अब जिंदा हौंउगा..... तो अपनों की नफरत से मरूँगा 
मुझे ये सडी गली ज़िंदगी ही जीने दो 
बाबा न जाने कब घर से निकल गए 
और फिर कभी नहीं मिले
मैं भी उनके परिवार को 
उनके जीवित होने की बात 
कभी नहीं बता सका ......

-कुशवंश





31 मई 2016

दिलकश नज़ारे साथ थे


उम्र के दिलकश नज़ारे 
साथ थे
जीने के अद्भुत सहारे
साथ थे 
बोलता था हृदय 
अबोला जो रहा 



एहसास के स्नेहिल किनारे 
साथ थे 
रफ्ता रफ्ता उम्र निकलती ही रही 
छिप के बैठे प्यार सारे
साथ थे 
चाँद का सौन्दर्य 
चाँदनी की कला
गुलाब के फूलों का
महका जलजला 
सुगंध योंवन के सितारे
साथ थे 
खिल गए थे फूल 
सलोने एहसास मे 
आसमा मे उड रहे थे 
प्यास मे 
बरसात की बूंदें गिरीं
भिगो दी कायनात 
छिपते छिपाते दर्द सारे 
साथ थे 
कैसे कैसे किस्से हवाओं मे हुये
एहसास के हिज्जे 
फिज़ाओ मे हुये 
सौंदर्य ने सिकुड़न लिखी जब
गाल पर 
अंतर मे , एहसास सारे
साथ थे 

-कुशवंश


10 मई 2016

जी लिए बहुत












जी लिए बहुत
और जी कर भी करेंगे क्या
पी लिए आंशू बहुत
कुछ और पीकर भी करेंगे क्या
बचपन
बिना कुछ सोचता फिरता रहा
यौवन
गुलाबी ,
साँझ सी बुनता रहा
बुन लिए
ज़िंदगी के  तार
काँटों के करीब
तने रहकर भी चुभे
झुककर चले तो
चिर गई पीठ
सामने देखा तो मंजर
और भी वीभत्स था
ज़िंदगी से हार माने
बैठा हुआ
कुछ वक्त था
परवाह नहीं की
कभी घड़ियों की,  न बालू की
रात मे ठहरा हुआ सा
कालिमा सा  दिन हुआ
पश्चिमी कोने से निकला सूर्य
था चादर लपेटे
चाँद भी था , चंदिनी भी
सो रही लालिमा समेटे
शुक्र था , उतरा हुआ
मुडेर पर
मेरे शहर
शनि था लटका हुआ सा
दरख्त पर
रात की चादर लपेटे
कार्य सब तैयार थे
वो जो जाएगा  , जिसे जाना है क्षैतिज के पार
कहाँ है
ज़िंदगी से हारकर वो
बैठा कहाँ है
एक जीवन
रक्त रंजीत कर दिया
कूड़ा हुआ
मुफ्त मे मिला जो जीवन , रौद डाला
प्रश्न करता फिर रहा
सारे जहां से , और से
उत्तर छिपाये ,
हृदय मे , झुककर तो पढ़
अपनी परिभाषा बना
रास्ते तो गढ़
जान जाएगा ये जीवन आज भी कितना घना है
इसको कितना जीतने को
तू बना है
समुद्र तट की सीपियां
बीनता रहा
फैले हुये , सामने पानी को देख
तट पर ही बिखरे
मोतियों को भी समझ
चलना तुझे , मीलों है
किनारे भी, अंदर भी
जीतना तुझे है , बालू भी
समंदर भी

-कुशवंश






3 मई 2016

किसी काम का नहीं वो ......


शाम जब झुरमुट से निकाल कर
मेरे आगोश मे फैलने लगी
मुझे आभाष हुआ
रात होने लगी
चौपाल पर बाबा
अभी भी बैठे है 
पता नहीं क्यों



ये तो उनका खाने का समय है
न वो चीखे
न चिल्लाये
सूरज डूब रहा है
खाना कहाँ है
सूरज ढल जाने के बाद वो नहीं खाते
चाहे भूंखे ही सो जाये
नियम नहीं टूटता
नियम तो उस बेटे का भी नहीं टूटता
जो शाम होते ही
किसी काम का नहीं रहता
रहता तो वो
किसी काम का दिन मे भी नहीं  है
हाँ शाम को
उसके इरादे नेक नहीं होते
बाबा की लाठी से भी नहीं डरता
न जाने कितनी बार
पड़ोसियों ने मिलकर
बांध दिया था उसे
जब छूटा ,
रात बिरात
माँ ने खाना दे दिया
और  पत्नी ने शरीर
उसकी चौदह साल की एक बेटी है और
डेढ़ साल का बेटा
ये काम वो  मुस्तैदी से करता है
बेटे की ख्वाइश , मा और बाबा की दोनों की थी
खेतों मे
दाने उगते तो है
पेट की आग नहीं बुझा पाते
साहूकार ने आधे खेत छीन लिए
दाल रोटी और बीज के कर्ज के बहाने
बाकी  बैंक मे गिरवी है
अभी अमीन आया था
हवालात मे बंद करवाने
वसूल  ले गया  दावा दारू का भी पैसा
कर्ज कहाँ से चुकाए
बाबा अम्मा  और चार का परिवार
पेट को दाना चाहिए
और दाना
कभी ओलोंमे
कभी सूखे मे
और कभी
बाढ़ मे 
न जाने कहाँ चला जाता है
सरकारी दया से बस
देशी पाउच ही आ पाता है
इस पाउच से वो
पेड़ पर लटकने से बच जाता है
भले वो किसी की नजरों मे
किसी काम का न हो
परिवार को तो सामने नजर आता है
दाना दे न सके  परिवार को , तो क्या
उनको  आत्महत्या  के आँसू तो नहीं रुलाता  है
अपने परिवार  की ज़िम्मेदारी भी तो
उसी की है  न .........
किसी सरकार की तो नहीं .....

-कुशवंश


 

27 अप्रैल 2016

बांस की खपच्चियाँ




बांस की खपच्चियाँ
देखीं हैं तुमने
हसिए से चीर कर
कई टुकड़ों मे विभक्त किया जाता है जिन्हें
और वो कभी उफ भी नहीं करतीं
चिर  कर
मानव के काम आने वाली वस्तु बन जातीं है
और अपने वजूद को कभी याद नहीं रखतीं
इस आकार से पहले
क्या था उसका अस्तित्व
शायद ही याद रह पाता हो उन्हें
झुंड मे लहलहाते हुये
आसमान छूते इरादे
शायद ही सोच पाते होंगे
ऐसी गति
फिर भी कोई अफसोस नहीं
बस वर्तमान आकृति पर
गर्व करती खपच्चियाँ
आँसू तो बहाती है
मगर दिखाती नहीं किसी को अपने आँसू
स्त्री और बांस की खपच्चियों मे
शायद ही फर्क होता हो कोई
झुंड मे अठखेलियाँ करती
एक दूसरे को बाहों मे समेटती
ठंडी हवाओं मे गगनचुंबी बातें करती लड़कियां
कहाँ सोच पातीं है
वर्तमान का सच
बहू , पत्नी , माँ और  इस सब के बीच में
चिरी खपछियों सा उसका व्यक्तिव
कहा कर पता है किसी से कोई सवाल
उसी से पूंछे जाते कई कई सवाल
इन सवालों के मध्य और जवाबों के बीच
व्यर्थ हो जाता है
उन्मुक्त उसका अस्तित्व
शायद बिना उत्तर दिये
किसी-किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता शायद
और जब यही खपच्चियाँ
निकल पड़तीं है उत्तर ढूँढने
तो संस्कृति उठ खड़ी होती है
व्यवस्था सर उठा लेती है
आड़े आने लगते है कई दंभ , कई संस्कार
क्या इन्हें आना चाहिए
पूंछिए अपने आप से
और देखिये खपच्चियों की ओर .....
बस...... खपच्चियों की ओर ...

- कुशवंश


25 अप्रैल 2016

अंधेरे का सूरज



कल रात मेरे शहर की
हवा बदल गई
सूरज चढ़ आया था
मगर दिन नहीं हुआ
अंधेरा ही बना रहा
आसमान पर टिमटिमाते रहे तारे

अठखेलिया करता रहा चाँद
दिन चर्या ही शुरू नहीं हुयी
सारी गालियां रहीं सूनी
बस घड़िया नहीं रुकीं
सरपट भागता रहा समय
पेड़ों पर सोये रहे पक्षी
गौरैया तो पहले ही गायब  थी
अब कौए भी
हो गए नदारत
न जाने क्यों नजर आने लगे चील
बहुत नींचे उड़ते हुयी
घरों की मुडेरों पर
इस डरावने अंधेरे मे
इधर उधर बस डरावनी आवाज़
कुत्ते भी नहीं भौके
किसी को कुछ  पता नहीं  चला
ये सब कैसे हुआ
प्रकृति ने क्यों मुह मोड़ा
हरे  भरे पौधों से
क्यों गिरने लगे पत्ते
रह गए ठूंठ संवेदना हीन
खोखली जड़ों से जुड़े हुये
समवेदनाओं से भरे मानवीय सम्बन्धों मे
क्यों हो गई रक्तिम आँखें
मस्तक पर क्यों पड़ने लगी
बदले की रेखाए
ईर्ष्याओ के पहाड़ खड़े  हो गए सब तरफ
किसी रास्ते को बनाने नहीं आए
कहीं से दशरथ मांझी
बस सूरज लेकर भाग खड़े हुये कुछ लोग
इस आशय से की रोशनी
उनकी है सिर्फ उनकी
अधेरे का कोई सरोकार नही
रोशनी बिखेरते सूरज से
कितना भी गहरा जाये अंधेरा
सूरज उसकी गिरफ्त मे रहेगा
रोशनी को कैद कर लेंगे
अपने लिए
सिर्फ अपने लिये
ऐसा कभी हो सका है क्या  ?

- कुशवंश



20 अप्रैल 2016

एक अदद चेहरा


कभी सोचता हूँ
तो याद आता है मुझे
अपना अक्श,
गड्ड मड्ड,
आकार रहित,
बिना आँख कान नाक ,
एकदम सपाट चेहरा

शायद अनगढ़,
संवेदना व्यक्त करती आंखे,
शायद बनी ही नहीं
माथे पर आडी तिरछी लकीरें
जो बस आंतरिक सुनामी को
आयाम देतीं,
कोई देखे तो  दूर से ही समझ ले
कटीली झड़ियों
और अनेकों झंझावातों से
युद्ध करता सा
अंतर्द्वंदों मे फसा
आम आदमी
भीड़ मे , भागता , सूखे  और पपड़ाए होंठों  पर ,
रेत मे बिखरता
मिच मिची आँखों  का
अनाकार चेहरा
ही नज़र आता  है
सड़कों पर भरी पड़ी भीड़
यहाँ से वहाँ , फूलती साँसों से भागते
चेहरा छिपाये लोग
धूप से या अपने आप से
पता नहीं
शायद बिना चेहरे रहना
सुखद लगता है
या शायद चेहरे का कोई औचत्य ही नहीं रहा
या फिर व्यवस्थाओं की भेट हो गया
निर्मल चेहरा
हमारा , आपका
सबका
कुछ हो या ना हो
इतना तो करो ........कि
नज़र आए  सभी को
ये चेहरा, एक अदद चेहरा

-कुशवंश

16 अप्रैल 2016

मैं भूंखा हू



मैं भूंखा हू 
अए  रोटी तुम कहाँ हो  ?
कब से नहीं देखा तुम्हें साबूत 
बस टुकड़ों मे ही दिखाई देती हो
बहन भाइयों मेँ बटी हुयी 
कभी धूल मे सनी 
कभी पानी मे गीली गीली

माँ भी कैसी है  
चूल्हा तो जलाती है
मगर रोटी नहीं बनाती 
बस इधर उधर 
कूडे  से बीन लाती है
हाँ 
शहनाई और बैंड-बाजा  दिनों मे 
कूडे के ड्रम
हो जाते है पाँच सितारा होटल 
और कई कई दिन 
हम महाराजाओं से जीते है 
ड्रमों के आस पास 
ये ..... इन्सानों  
तुम्हें अगर हमें कुछ देने मे संकोच होता है तो 
यू ही खाना फेंकते रहो 
कूडे के ड्रमों मे 
हमें मिल जाएगा 
और हमारा पेट भी भर जाएगा 
कुछ सुधारवादी 
खाना फेंकना बुरा मानते है 
पता नहीं क्यों 
हमें भूखों मारना चाहते है 
उन्हें शायद नहीं मालूम 
हमें कुछ देने से तो रहे लोग 
कम से कम जूठा ही छोड़ने दे
हम कूडे से ही बीन लेंगे 
और भूंख से निजात पा लेंगे 
शायद

-कुशवंश



"अमर इस नो मोर"



दोपहर थी
लगभग तीन बजा था
मोबाइल बजा
प्रतापगढ़ वाले मामा जी थे
एक गंभीर हादसे की सूचना दे रहे थे
तेईश साल का अमर
मैसूर के पास पिकनिक मनाते हुये
नदी मे बह गया
पिता के पास एक लड़की का फोन आया
अमर  के ही  फोन से
"अमर  इस नो मोर"
ये क्या हुआ ? किसी को समझ मे नहीं आया
बड़ा भाई आनन फानन
बंगलोर से घटना स्थल पर  पहुच गया
एक छोटी सी पुलिस चौकी के पत्थर पर
पड़ा था अमर , निर्जीव
और साथ ही बैठी थी वो लड़की
जिसने कहा था "अमर इस नो मोर"
पोस्टमार्टम के बाद , कटा फटा
बिना किसी कपड़े से ढका
का साथ देने
बिना डर बैठी थी वो
बड़े जीवट की थी वो
साथ में आए सभी भाग गए थे...... किसी अनहोनी के डर से
पुलिस इंचार्ज साहब सुबह आठ बजे आए
आते ही बोले  कपड़ा लाओ
लाये हो तो , दो   सिलवा दें
या यू ही पड़ा रहने दें
जैसे तैसे पोलिथीन मिली , उसी में समेटा गया
अंबुलेंश में  लाद कर  बंगलोर एयर पोर्ट लाया गया
कैफीनवाले ने तीस हज़ार मांगे
तमाम फॉर्मैलिटीस के बाद
दिल्ली के लिए रवाना हुआ
तब तक दो दिन निकल चुके थे
अमर न देखने  लाइक बचा था
न घर मे रखने लाइक
माँ बाप को,
चेहरा न देखने को कहा गया
जिन्होंने देखा वो भी हिम्मत नहीं कर पाये देखने की सीधी आँख
गले हुये आकार रहित  अमर  को ,
सभी के आगे वो चेहरा घूम रहा था ,
 जो
अभी होली पर ही तो गया था
एक हफ्ते पहले
माँ चीख रही थी
सबको बस वही चेहरा याद था
पूरा खानदान जुड़ा था
इस संक्रमण काल मे  सभी थे हतप्रद
अचानक आई इस विपत्ति से बेहाल
उसे अग्नि को समर्पित कर दिया गया
आशू भरे आँखों मे ,  पिता ने पूंछा
आए हुये लोगों को घाट पे ही
कुछ मीठा खिलाया जाता है ना ......
मैं वहा से उठकर घर चल दिया
मुझे ये सोच भी हथौड़े सी लग रही थी ......
मेरे सीने मे धुआँ भर गया था ...............
पहले शुद्धी होगी
तेरह दिन बाद तेरहवी होगी
सारे विधि विधान से
आत्मा की शांति के लिए .....
आत्मा शांत होगी क्या
इस अकाल देहावसान ...............पर
कौन शांति देगा
पता नहीं
माँ,  पिता का  हृदय  शायद ही  शांत हो  पाये कभी
शांति की तलाश मे कितने भी करो कर्मकांड
विचलित हृदय
कैसे तलासेगा शुकून
कौन आया , कौन नहीं का हिसाब किताब रखते
दुख मैं शरीक होने आए लोग
शायद इस दुख को ,
असीम दुख को सहने के लिए
क्यों नही बनाते  कोई रीति रिवाज
कोई कर्मकांड
कुछ तो बना लेते
अमर ... तुम अमर हो
अमर ही रहोगे ...
हमारे दिलों मे.....

कुशवंश






8 अप्रैल 2016

आओ माँ इन गलियों में



आओ माँ इन गलियों में
भक्तों का उद्धार करो 
भटक गए जो पथ से बंदे 
उनका बेड़ा पार करो
अन्तर्मन मे चलता है कुछ 
बाहर मन करता कुछ और 
चंचल मन उड़ता फिरता है 
असंतोष का भीषण दौर
रिस्ते-नाते गौण हुये सब
शोहरत , पैसा हुआ प्रबल 
जी लों जितना जी पाओ तुम  
कब,  किसने देखा है कल
समवेदनाएं सूख गयीं सब 
रहा न आँखों मे पानी 
वृद्धा आश्रम चले गए सब 
दादा दादी , नाना नानी 
कहाँ गयीं वो गालियां, गाँव
कहाँ गए सब लोक व्योहार 
घर घर मे खुशिया बिखराते  
कहाँ गए सब तीज त्योहार
सूने है  सब  खेत खलिहान 
सूने हैं  चौपाल , मकान 
शहरों की झोपड़पट्टी मे 
सिसक रही गावों की जान 
कैसा देश बनाया हमने 
अपने भाई बहन भूले 
प्रगति दौड़ मे हिली जा रहीं 
सम्बन्धों की सारी चूलें
माँ इन नवरात्री मे तुम 
सबसे एक शपथ लेना 
मानव बनकर भक्त जीए सब 
ऐसा आशीर्वाद देना ......

- कुशवंश





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