मेरे जेहन से एक पत्थर उछला
मैंने सोचा
उसके हृदय मे लगा
उसने मुझे देखा ही नहीं
मैंने सोचा शायद मेरा भ्रम है
पत्थर शायद उछला ही नहीं
मैंने रास्ते से कटीली झाड़ियाँ बटोरीं
और उसके निकास पर बिछा दी
वो उनपर पैर रखकर चला गया
मैंने देखा कुछ दूर जाकर उसने पैर के काटें निकाले
और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा
मैंने उसके घर को रूख किया
और उसके पड़ोसी के घर चला गया
उसकी पत्नी की अल्ल्हड्ता पर चर्चा की
पड़ोसी ने मेरे मन की थाह ली
और उसके अंतर वस्त्र के रंग खोल दिये
पति के जाने के बाद चित्रित
रंगीन और गुलाबी सोच के न जाने कौन कौन से आसमानी रंग
उसके ही नहीं मेरे भी अपभ्रंशित मन मे
जो भरे थे
आकार लेने लगे
मैं और वो पड़ोसी
न काम पर जा सके
न अपना मन्तव्य हल कर सके
वो शाम को कब आया
मुझे उसमे दिलचस्पी जाग चुकी थी
पूरे मोहल्ले मे खुसुर फूशूर थी
क्या मेरा मन्तव्य हल हो रहा था
उसकी खूबसूरत पत्नी छज्जे पर आई
साथ मे आया ...... वो
इतना प्रसन्न , जितना मैंने कभी नहीं देखा था
उसने न मुझे देखा , न पड़ोसी को
और पत्नी का हाथ थामे
अंदर चला गया
..........
दिन बीते
समय बीता
पड़ोसी की लड़की , सब्जीवाले के साथ भाग गई
और शर्म से , पत्नी मायके
पड़ोसी , चौराहे पर टून्न पड़ा रहता है
मुझे वहाँ से कोसों दूर , प्रागैतिहासिक गाव का रुख करना पड़ा
वहा .भी .... किसी ने मुझे टिकने नहीं दिया
गाव की हरीभरी चौपाल मे
जातिवादी बीज बो दिये थे मैंने
कालांतर मे मटरू ने मेरा हृदय निकाल लिया
और फेंक दिया , कुए मे
महीनों सड़ता रहा मैं , मेरी सोच
अब भी मेरे साथ थी
आदमी को आदमीयत से काटने की सोच
आदमी को आदमीयत से काटने की सोच
न जाने किस लोक से आई थी
जो मर कर भी जीवित थी ....
-कुशवंश
जो मर कर भी जीवित थी ....
-कुशवंश
आपने बहुत ही शानदार पोस्ट लिखी है. इस पोस्ट के लिए Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
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