महेश कुशवंश

3 जून 2016

प्रश्न अनुत्तरित...



तुमने मेरे लिए क्या किया
ये ज्वलंत सवाल
गाहे बगाहे
जीवन  को छलनी करता रहा
और मैं आगे
और आगे बढ़ता रहा
मैंने सोचा
वाकई गहरा है ये पूछना
तुमने क्या किया
एक शून्य हो जाता है
मेरे चारो तरफ
और मैं उन शून्य हुये
गुब्बारे में घुसा , उल्टा होता रहता हू
बलून मे कोई द्वार नहीं होता
न ही निकलने का कोई रास्ता
बलून फूट भी नहीं सकता
जो मिल जाये कोई  विस्त्रत आकाश
आंखे बंद होते ही
फिर अवतरित हो जाता है
वही अनसुलझा प्रश्न
क्या कुछ भी नहीं किया मैंने
प्रश्न तो मात्र प्रश्न है
उत्तर तो तलासना ही पड़ेगा
एक ऐसा उत्तर जो सिर्फ सवाल न हो
गुलाब की पंखुरिया जब
मुरझाने लगती है
तो नहीं रह जाती कोई सुंगंध
न रहे
मगर गुलाब का अतीत तो है
रेशमी , कोमल और झंकृत करने वाला स्वर
गुलाबी प्यार मे ही तो निहित है
इस प्रश्न पर क्यों छा जाती है खामोशी
जब ढेरों ख्वाहिशें
रूबरू होने लगती है
कभी हाथ पकड़ कर , मेरे दुख मे शामिल हुये
कभी बिना काम , घर मे ही रह जाते
न जाते ओफ़ीस
कभी जल्दी आते और कहते
चलो आज कहीं चलते है
सिनेमा ही देख आते है
न हो ..... मंदिर ही चलते है
ख्वाहिशें भी इत्ती सी होती है
और ये इत्ती सी कब
जीवन को उलट पलट कर देती है
कब प्रश्न दर प्रश्न बन जाती है
पता होते हुये भी ...... किसी को पता नहीं होता
और समय  निकल जाने के बाद
हाथ नहीं आता
कोई भी उत्तर... किसी भी तरह का
तुम ठीक कहती हो
मैंने किया ही क्या है  ....?
उत्तर तो मुझे ही ढूँढना  होगा
और तुम्हें जो स्वीकार्य हो बताना भी होगा
झुर्रियां पड़े हाथों मे
ताकत पैदा करनी होगी
और प्यार की वो तपिश फिर से जगानी होगी
जो कभी नहीं जागी
या जागी तो  अनुभूति कैसी हो
नहीं हुयी
प्यार की पेंगे और दुनिया को समेटने वाले हाथ  
अब क्यूँ .... टूटने को हैं
झुर्रियां तो .... उस बच्चे को भी होती हैं जो जन्म ले रहा है
फिर क्यों झुर्रियां दिखा कर
चुके से हो जाते हो
उठो जागो और आसमान को जमी पर उतार दो
क्या कर सकते हो तुम
दिखा दो ...
शायद प्रश्न का उत्तर मिल जाये
कुछ नहीं किया तुमने ।
 
 
-कुशवंश







 

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