महेश कुशवंश

3 जून 2013

तुम्हारा आना .......



तुम कौन हो
पूंछता है एक
कोलम्बस
जब वो खोलता है
अपनी नन्हीं-नन्हीं आंखें
मैं उसकी सत्य अन्विज्ञता पर
प्रफुल्लित हो जाता हूँ
आँखों में  अनगिनित  सपने संजोयें
वो मुझे देखता है
मुस्कुराने की कोशिश करता है
और शर्मा जाता है
मैं सोचता हूँ
ये बेटी क्यों है ?
काश बेटा होती ...
तभी शर्मा जी की आवाज़ गूंजती है
बधाई भाई  साहब
लक्ष्मी आयी है ..
मैं तपाक  से हाँथ मिलाता हूँ .
बेटियाँ , बेटों से कम नहीं होतीं  भाई साहब
मैं भरपूर खुश होने की कोशिश करता हूँ
मगर अंतर्ध्वनि माथे पर लकीरें खीच जाती है
कोलम्बस मेरी तरफ फिर देखता है
और मुस्कुराने लगता है
मैं माथे पर खिची  लकीरें मिटाने  लगता हूँ
सदियों से घर कियॆ बैठी
सड़ी गली परम्पराओं से
निजात पाने
कोलम्बस को उठा लेता हूँ और
सीने से लगा लेता हूँ ....
अंतर्ध्वनि अपना रास्ता ढूंढ लेती है
मुझे लगता है
मेरे जीवन की
सुखद परिणति हो गयी है
बेहद सुखद…।

-कुश्वंश  

21 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

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  2. गहन भावमयी रचना के लिये हृदय से बधाई स्वीकार करें.......

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ४ /६/१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का वहां हार्दिक स्वागत है ।

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  4. बेहद सुखद ...बस स्वीकार करना है !
    मुबारक हो !

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  5. वाह बहुत खूब !!! दिल छू गयी आपकी यह रचना सच यदि हर कोई केवल अपने दिल की सुने तो सभी को इस सुखद एहसास की अनुभूति हो सकती है।

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (17.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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