महेश कुशवंश

24 मई 2014

मौन रहकर



सोचता हूँ  मौन रहकर
कुछ सुनू,
अंतर हृदय के  द्वार खोलूँ
राहे बुनू॰
तनहाइयाँ बिखरी है कुछ
नेपथ्य मैं,
चीख ही  दर चीख है
बस कथ्य में॰
आसमा भी  रक्तरंजित
खौली  धरा,
चादनी मे भी अंधेरा
है  हरा॰
रात्रि की फिर
तोड़कर सारी हदें,
कौन आया है यहा
कुछ तो कहें॰
चीखता है मौन भी
निःशब्द सा,
खोया हुआ है  शब्द जो
उपलब्ध था॰
मौन रहकर भी 
कहाँ,  कुछ , हासिल हुआ,
कैद मे पंछी बहुत
व्याकुल हुआ॰
कतरे हुये पर से कहाँ 
उड़ने चला,
रेत  होते संकल्प से
जुडने चला॰
जब कभी आज़ादी पर 
आती है आंच
मौत बनकर सभ्यता 
करती है नाच॰

-कुशवंश








4 टिप्‍पणियां:

  1. चीखता है मौन भी
    निःशब्द सा,.....बहुत सुन्दर मौन चींख सिर्फ ह्रदय सुन पाता है

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता की प्रस्तुति, आभार।

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  3. अद्भुत ....निःशब्द करती पंक्तियाँ

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-कुश्वंश

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