अकेले होता हूँ मैं
और सन्नाटे को चीरती हुयी कोई हवा
मुझे सच और झूठ के मर्म का एहसास कराती है
मै उन समवेदनाओं को
झटक कर किनारे लगा देता हूँ
और दंभ में
अंतरात्मा का सच बाहर नहीं आने देता
बस अपनी स्थिति बदल कर
कुछ और सोचने लगता हूँ
मुझे झूठ का कोई मलाल नहीं होता
और सच को जमीदोज़ करने का भी नहीं
कोई प्रायश्चित नहीं
बस धड़कने तेज हो जाती है
और स्वत: दाहिना हाथ
कस कर जकड़ लेता है हृदय
श्वांस फूलने लगती है
दया की मुद्रा मे माथे पर चुहचुहा आए पसीने में
अतीत घूम जाता है
भोली भली सी तुम
महज सात फेरों के गांठ से बंधी तुम
चली आई थी
अपनों से दूर
कितने ही कसमों-वादों से अंजान
और अंजान उन आने वाले कठिन समय से भी
जो सिर्फ तुमने जिये
और मैं
तमासबीन सा उस आग को जलते देखता रहा
जिसमे ध्वस्त हो रहा था
तुम्हारा स्त्रीत्व
तुम्हारी पहचान
कितने ही निकल गए वोमेंस डे
मगर मैं आज भी उसी सड़क के कोने मे
कूड़े से दाने बटोरती
पड़ी हूँ
तुम्हारे उस झूठ की वजह से
जो तुमने सच नही कहा
आज भी नही
चाहो तो अभी भी
दाहिने हाथ को बाई तरफ हृदय पर रख कर
पसीना सूखा सकते हो
वो सच बोलकर .........
कुशवंश
खूब..... सधी, स्पष्ट अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअंतर्मन की गहन कंदराओं से उपजी अनुभूति !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंअंतरात्मा का सच बाहर आता है
जवाब देंहटाएंपर नक़ाब पहने