पलती है
बढ़ती हैं
आँगन मे पायल की रुंझुन सा
संगीत गढ़ती हैं
कभी पीठ पर
कभी गरदन पर
प्यार से लटक जाती है
और कभी गमले से कुरेदकर मिट्टी
असफल छुपाती है
और कभी
हाथ बढ़ा हमारे मुह मे लगाती है
देखती है तकरार होते
दरवाजे की ओट से
डरी सी, सहमी सी, निर्दोष
मुस्कुराहट का मरहम लगाती है
जाते ही स्कूल गढ़ती है नए क्षैतिज, नए आसमान
और कर जाती है गर्वित
नम आँखों से जब भी
होती हैं विदा
इस घर से उखाड़कर जैसे रोपा हो कोई पौधा कही और
एकदम से नए लोग, नए रीतिरिवाज
सबमे बखूबी रास्ता निकालती हैं
सामंजस्य बैठाती है
और जब भी लौट कर
घर आती है
समझाती है चिंता न करो माँ' मैं ठीक हू , खुश हू
भैया के लिए लायी हू ढेर सी दुआएं
तुम्हारे लिए कश्मीरी शाल
पापा के लिये सिल्क का कुर्ता
भाभी के लिए जार्जेट की साड़ी
मैं डबडबायी आँखों से देख रहा हू निर्बोध स्नेह
बेटियाँ क्या ले जाती है,
क्या लेने आती है
वो तो सिर्फ देने आती है
ढेर सा स्नेह
अप्रतिम दुआएं
और जीवन भर के लिए शुभकामनायें
हृदय से शुभकामनायें
-कुशवंश
सच है ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सीट ब्लेट पहनो और दुआ ले लो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंमन को छू गयी आपकी यह रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
लाजबाब सर ......
जवाब देंहटाएंMarmsparshi.....
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