रात के अंधेरे मे
जब भी
सन्नाटा चीखता है
मै अपने कान पर हथेली रख लेता हूँ
शायद
अवांछित शब्द
पिघले शीशे से ना हो जाएँ
........................
शब्द !
जो कभी रेशमी अहशास से होते थे
दिल मे सरकते थे,
कभी बंद आँखों मे
चाँदनी सी अठखेलियाँ करते थे
और कभी
ओस की निर्मल बूंदों से
मेरे चेहरे पर बिखर जाते थे
मैं रोमांचित हो
शब्दों के व्यापक अर्थ तलासने लगता था
मगर शब्द
कोई अर्थ नहीं देते
बस देते थे कोई अहसास ....कोमल,
और
समझ से परे किसी क्षीतिज मे
आकाश गंगा बना देते थे
और हम उस आकाश गंगा मे
ढूंढ लेते
कोई आसमाँ
कोई नया आसमाँ
नई प्रथ्वी सा..........
कुशवंश
आपकी लिखी रचना रविवार 27 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंकोई नई पृथ्वी!!!
जवाब देंहटाएंsundar
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसधे हुए शब्दों की कलाकारी
जवाब देंहटाएंसन्नाटे का शोर ... बहुत तीखा होता है ...
जवाब देंहटाएंशब्द की व्याप्ति असीम है - अपने में अनेक अर्थ समाहित कर सकता है ,उद्भावक समर्थ हो तो !
जवाब देंहटाएंमनःस्थिति के साथ अर्थ बदलते हैं अपने अर्थ। … सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंऔर हम उस आकाश गंगा मे
जवाब देंहटाएंढूंढ लेते
कोई आसमाँ
कोई नया आसमाँ
नई प्रथ्वी सा..........
बहुत ही सुन्दर अहसास करवा दिया है आपने.
आभार कुशवंश जी.
वाह बढ़िया अभिव्यक्ति
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