महेश कुशवंश

25 फ़रवरी 2014

हवा मे तैरते प्रश्न



कल साँझ
झुरमुटे अंधेरे में
मुझे याद आने लगा अतीत
डूबते सूरज से मिली जो  आँख
सर्वभोम सत्ता को
चुनौती देने लगा मैं
समय का अंतराल जरूर कर देता है चमक फीकी
मगर ये भी उतना ही सच है
सुबह होगी और उसी ऊर्जा से
उगेगा सूरज
तब भी आँख मिला पाओगे क्या ?
उत्तर देते हुये मुस्कुराहट
संभावनाओं को सच मान लेती है
और ढूँढने निकाल पड़ती है कोई और
सार्वभौम सत्तात्मक चुनौती की ठौर
जिसे  चुनौती देना
चलन मे ही नही
प्रगतिशीलता भी है
जो मैंने कहा, सोचा
वही होना चाहिए
बिना कसौटी पर खरे उतरे
हमने गढ़ ली दंभ की नई परिभाषाएँ
ले लिए संकल्प
अब इन संकल्पों मे क्यो न वास्प हो जाएँ श्रमबिन्दु
भटक जायी हमारी परिभाषाएँ
धूल धूसरित हो जाए
हमारी संसक्रति
प्रगतिशीलता के इस भ्रम जाल मे
मकड़ी भी उलझी है
जिसे जाले बुनने का गुर पता है
मगर तोड़ने  का नहीं
अब ये चक्रविहू कौन तोड़ेगा
हवा मे तैरते प्रश्न
अनुतरित

8 टिप्‍पणियां:

  1. चुनौतियाँ हैं, प्रश्न हैं तो हौसला भी है इनसे जूझने का .... बहुत सुन्दर ... शुभकामनाएं

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  2. जीवन जैसे ही प्रश्नों के उत्तर की तलाश ....

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  3. सदियों से हवा में तैरते प्रश्न .......उतर कब कहाँ....???

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  4. कुछ प्रश्न अनुत्तरित भी होते हैं ........

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  5. सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !

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  6. बिना कसौटी पर खरे उतरे
    हमने गढ़ ली दंभ की नई परिभाषाएँ
    ले लिए संकल्प
    अब इन संकल्पों मे क्यो न वास्प हो जाएँ श्रमबिन्दु
    भटक जायी हमारी परिभाषाएँ
    धूल धूसरित हो जाए
    हमारी संसक्रति
    प्रगतिशीलता के इस भ्रम जाल मे
    मकड़ी भी उलझी है
    जिसे जाले बुनने का गुर पता है
    मगर तोड़ने का नहीं

    बहुत सटीक एवं समसामयिक रचना .... साधुवाद ....

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-कुश्वंश

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