महेश कुशवंश

27 फ़रवरी 2013

बहुत गहराइयां थीं

रात थी
चांदनी थी
तन्हाइयां थीं
मन में कुछ उलझी हुयी
रुशवाइया थीं
रास्ते कुछ हो गए थे
पत्थरों से
जंगलों में
पेड़ पर
हिलते घरों से
सूर्य को डूबे हुए
लम्हा हुआ था
गोधूलि में भी आसमा
तनहा हुआ था
छीलती जो
पीठ को
करती रक्तरंजित
पास में लेटी हुयी
अंगडाइयां थीं
खाइयों में गिर रहा
मेरा शहर
झाँक  कर देखा
बहुत गहराइयां थीं
रात थी
चांदनी थीं 
तन्हाइयां थीं ..

मन में कुछ उलझी हुयी
रुशवाइया थीं

.........................?


9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भावपूर्ण रचना है |सुन्दर शब्द चयन |
    आशा

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  2. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,सादर आभार.

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  3. खाइयों में गिर रहा
    मेरा शहर
    झाँक कर देखा
    बहुत गहराइयां थीं

    विचारणीय एवं भावपूर्ण

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  4. अर्थपूर्ण भाव...... परिवेश से मन भी जुड़ा होता है.....

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  5. बहुत गहन भावों को सँजोया है रचना में बहुत मार्मिक हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर कुश्वंश जी

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  6. बहुत खूब !
    कौन नापे ...उलझी रुस्वाई.मन की गहराई !

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  7. संवेदनशील भाव लिए भावपूर्ण रचना...

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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