महेश कुशवंश

15 जनवरी 2013

कौन हूँ मैं




कौन कहता है
हमारा धड़कता नहीं है
दिल
हमारे सपनों में कोई नहीं मुस्कुराता
कभी भी
यादों के झरोखों से कोई नहीं झांकता
कसक नहीं उठती
मिलन की
कसमसाता नहीं है
कोई झरना
ओस सी बूँदें
नहीं भिगोती कहीं भी ,
कभी भी
संबंधों का दर्द चुभता नहीं है बाई ओर
चुभन बनकर 
हिकारत की नज़रों से जब भी
देखता है कोई
मै  भी महसूसता हूँ कोई बेवफाई
मुझे भी भिगो जाती है कोई बरसात
उडाती है मेरे भी गालों पर लटें
कोई  पुरवाई
मैं भी महसूसती हूँ
प्रसव वेदना
मात्रत्व  की बाल सुलभ शर्म
चाहती  हूँ मैं भी
पुकारे कोई तोतली आवाज़
मगर मुझे तो अभी
खुशियों के गीत गाने है
तुम्हारे घर
तुम्हारी गलियों में
तुम्हारे सांस्कृतिक  रीति रिवाजों में
और आंशुओं से परिपूरित करना है
बक्शीश के लिए नंग नांच
यही जो नियति है
अब इसे तुम कुछ भी नाम दो ..
 क्या नाम दोगे .....बताओ .

10 टिप्‍पणियां:

  1. गहन भाव लिये ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति

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  2. One of your best creations revealing the bitter truth.

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  3. कटु सत्य का सजीव चित्रण...बहुत मर्मस्पर्शी रचना...

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  4. संबंधों का दर्द चुभता नहीं है बाई ओर
    चुभन बनकर
    हिकारत की नज़रों से जब भी
    देखता है कोई
    मै भी महसूसता हूँ कोई बेवफाई
    मुझे भी भिगो जाती है कोई बरसात


    वाह बहुत खूब

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  5. बहुत संवेदनशील रचना ........

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  6. अति संवेदनशील भावभिव्यक्ति....

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  7. प्रभावशाली ,
    जारी रहें।

    शुभकामना !!!

    आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
    आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।

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  8. बहुत ही सुन्दर,भावपूर्ण,संवेदनशील अभिव्यक्ति,धन्यबाद।
    भूली-बिसरी यादें

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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