महेश कुशवंश

26 अक्तूबर 2012

हिसाब बराबर




मेरे घर में
जूठे बर्तन रगड़ कर
फर्श चमकाकर
जब भी वो निरीह  जाने लगती है 
मेरी पत्नी 
उसे आवाज़ देकर बुलाती है 
और परोस देती है 
रूखा सूखा खाना 
रात की बची खुची जूठन 
बड़े चाव से खाती है वो
और धन्यवाद की पनीली आँखों से 
आभार व्यक्त करती है 
पत्नी को संतोष होता है कि
बेकार जाने से बच  गया अन्न 
वो जन्म से भूंखी 
मैली कुचैली धोती से हाथ पोंछती
अहसान के बोझ से दबी 
पूंछती है
कोई काम तो नहीं बचा बीबी  जी 
पत्नी मुस्कुराती है और कहती है
बीन दो गेहू 
और वो जुट जाती है हिसाब बराबर करने 


.. कुश्वंश 

14 टिप्‍पणियां:

  1. हिसाब भी बराबर कर लिया ...और अहसान से भी दबा लिया ...
    येही सच है !
    खूबसूरत अहसास !
    शुभकामनाएँ!

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  2. जूठन का भी हिसाब बराबर कर लिया जाता है...
    कटु सत्य...मर्मस्पर्शी!!

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  3. मन को द्रवित कर दिया ,सच जिंदगी का यह पहलू बेहद त्रासद है ,

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  4. सच में ये जीवन के सबसे पास का सत्य है

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  5. लेन देन का व्यापार आज भी अपने चरम पर है

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  6. वाह....
    निःशब्द करती रचना....
    मगर सच्चाई के एकदम करीब.....

    सादर
    अनु

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  7. मार्मिक शब्दावली |
    झकझोरते भाव ||

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  8. मर्म भाव दर्शाती अभिव्यक्ति..

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  9. मार्मिक एहसास है,परन्तु कडुआ सच है.

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  10. आपकी मार्मिक रचना मुझे बहुत अच्छी लगी ..पढ़ कर मख्मूर जी के ये 2 शेर याद आ गये.

    ज़ौक़े-तामीर था हम ख़ानाख़राबों का अजब
    चाहते थे की बने रेत का घर पानी में ,

    खुद भी बिखरा वो,बिखरती हुई हर लहर के साथ
    अक्स अपना उसे आता था नज़र पानी में

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  11. बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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