कितनी सच हैं
हमारी अनुभूतियाँ
उतनी ही
जितनी सरे आम करते है हम
और वो जो बाहर आने से रह जाती है
बन जाती है कुंठाएं
जो बाहर आती तो हैं
मगर
अपनी अनगिनित कुंठाओं के साथ
आघात के साथ भी
कभी स्वयं को
कभी इसको उसको
कुछ कुंठाए जो आत्मसात होती है
जन्म देती है कुछ और परिभाषाएं
जिन्हें परिभाषित करते ही
जन्मने लगते है अपराधबोध
और इन्ही अपराधबोध से
विभक्त होने लगती है हमारी मान्यताएं
मान्यताये
कहाँ से आयी
किसने बनाई
संस्कृति से जन्मी या
पारिवारिक अनुग्रह से परिलक्षित
जन्म लेने लगते है शब्द फिर शब्दकोष
जिनका कोई मतलब हो न हो
आकार ले लेते है सदियों के लिए
और हम
मान्यताएं बदलने का युग परिवर्तन देखने लगते हैं
परिवर्तित कुछ हो न हो
हवाओं का रुख जरूर बदल जाता है
और धुल धूसरित हो जाती है परम्पराएं
परम्पराएं टूटती हैं तो
आकार लेती हैं वर्जनाएं
किसने बनाई
कहाँ से आयीं
कई सवाल उठ खड़े होते हैं
उत्तर भी बहुत से आते है
मगर कोई भी उत्तर
अंतर्मन से नहीं आते
वर्जनाएं न मानने वाले भी
अंतर्द्वंद में घिर जाते हैं
और खोजने लगते है
इसके उसके कंधे
वर्जनाएं तोड़ी हैं तो
उन्हें स्वीकारने की हिम्मत भी होनी चाहिए
मात्र विज्ञापन से वस्तु नहीं बिकती
उसे बाज़ार भी चाहिए
खरीददार भी चाहिए
और चाहिए सही मूल्य निर्धारण की कला भी
-कुश्वंश
इसके उसके कंधे
जवाब देंहटाएंवर्जनाएं तोड़ी हैं तो
उन्हें स्वीकारने की हिम्मत भी होनी चाहिए
मात्र विज्ञापन से वस्तु नहीं बिकती
उसे बाज़ार भी चाहिए
खरीददार भी चाहिए
और चाहिए सही मूल्य निर्धारण की कला भी
sunder bhav
badhai
rachana
अंतर्द्वंद,अनुभूतियाँ और एक बिंदु से विभक्त कई रास्ते .... बिना किसी पडाव के
जवाब देंहटाएंमन कि दुविधा और स्वयं से लड़ते हुए परिस्थितियों पर तीखा कटाक्ष |बधाई
जवाब देंहटाएंवर्जनाएं तोड़ी हैं तो
जवाब देंहटाएंउन्हें स्वीकारने की हिम्मत भी होनी चाहिए
मात्र विज्ञापन से वस्तु नहीं बिकती
उसे बाज़ार भी चाहिए
खरीददार भी चाहिए
और चाहिए सही मूल्य निर्धारण की कला भी
बिल्कुल सही कहा।
मात्र विज्ञापन से वस्तु नहीं बिकती
जवाब देंहटाएंउसे बाज़ार भी चाहिए
खरीददार भी चाहिए
और चाहिए सही मूल्य निर्धारण की कला भी
सच्चाई यही है... बहुत सुन्दर, गहन भाव