मेरे घर में
जूठे बर्तन रगड़ कर
फर्श चमकाकर
जब भी वो निरीह जाने लगती है
मेरी पत्नी
उसे आवाज़ देकर बुलाती है
और परोस देती है
रूखा सूखा खाना
रात की बची खुची जूठन
बड़े चाव से खाती है वो
और धन्यवाद की पनीली आँखों से
आभार व्यक्त करती है
पत्नी को संतोष होता है कि
बेकार जाने से बच गया अन्न
वो जन्म से भूंखी
मैली कुचैली धोती से हाथ पोंछती
अहसान के बोझ से दबी
पूंछती है
कोई काम तो नहीं बचा बीबी जी
पत्नी मुस्कुराती है और कहती है
बीन दो गेहू
और वो जुट जाती है हिसाब बराबर करने
.. कुश्वंश
हिसाब भी बराबर कर लिया ...और अहसान से भी दबा लिया ...
जवाब देंहटाएंयेही सच है !
खूबसूरत अहसास !
शुभकामनाएँ!
जूठन का भी हिसाब बराबर कर लिया जाता है...
जवाब देंहटाएंकटु सत्य...मर्मस्पर्शी!!
मन को द्रवित कर दिया ,सच जिंदगी का यह पहलू बेहद त्रासद है ,
जवाब देंहटाएंसच में ये जीवन के सबसे पास का सत्य है
जवाब देंहटाएंस्वाभाविक दृश्य
जवाब देंहटाएंलेन देन का व्यापार आज भी अपने चरम पर है
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंनिःशब्द करती रचना....
मगर सच्चाई के एकदम करीब.....
सादर
अनु
मार्मिक शब्दावली |
जवाब देंहटाएंझकझोरते भाव ||
मर्म भाव दर्शाती अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंमार्मिक एहसास है,परन्तु कडुआ सच है.
जवाब देंहटाएंसच्चाई को कहती मार्मिक रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी मार्मिक रचना मुझे बहुत अच्छी लगी ..पढ़ कर मख्मूर जी के ये 2 शेर याद आ गये.
जवाब देंहटाएंज़ौक़े-तामीर था हम ख़ानाख़राबों का अजब
चाहते थे की बने रेत का घर पानी में ,
खुद भी बिखरा वो,बिखरती हुई हर लहर के साथ
अक्स अपना उसे आता था नज़र पानी में
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंkadwa sach......
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