महेश कुशवंश

3 मई 2016

किसी काम का नहीं वो ......


शाम जब झुरमुट से निकाल कर
मेरे आगोश मे फैलने लगी
मुझे आभाष हुआ
रात होने लगी
चौपाल पर बाबा
अभी भी बैठे है 
पता नहीं क्यों



ये तो उनका खाने का समय है
न वो चीखे
न चिल्लाये
सूरज डूब रहा है
खाना कहाँ है
सूरज ढल जाने के बाद वो नहीं खाते
चाहे भूंखे ही सो जाये
नियम नहीं टूटता
नियम तो उस बेटे का भी नहीं टूटता
जो शाम होते ही
किसी काम का नहीं रहता
रहता तो वो
किसी काम का दिन मे भी नहीं  है
हाँ शाम को
उसके इरादे नेक नहीं होते
बाबा की लाठी से भी नहीं डरता
न जाने कितनी बार
पड़ोसियों ने मिलकर
बांध दिया था उसे
जब छूटा ,
रात बिरात
माँ ने खाना दे दिया
और  पत्नी ने शरीर
उसकी चौदह साल की एक बेटी है और
डेढ़ साल का बेटा
ये काम वो  मुस्तैदी से करता है
बेटे की ख्वाइश , मा और बाबा की दोनों की थी
खेतों मे
दाने उगते तो है
पेट की आग नहीं बुझा पाते
साहूकार ने आधे खेत छीन लिए
दाल रोटी और बीज के कर्ज के बहाने
बाकी  बैंक मे गिरवी है
अभी अमीन आया था
हवालात मे बंद करवाने
वसूल  ले गया  दावा दारू का भी पैसा
कर्ज कहाँ से चुकाए
बाबा अम्मा  और चार का परिवार
पेट को दाना चाहिए
और दाना
कभी ओलोंमे
कभी सूखे मे
और कभी
बाढ़ मे 
न जाने कहाँ चला जाता है
सरकारी दया से बस
देशी पाउच ही आ पाता है
इस पाउच से वो
पेड़ पर लटकने से बच जाता है
भले वो किसी की नजरों मे
किसी काम का न हो
परिवार को तो सामने नजर आता है
दाना दे न सके  परिवार को , तो क्या
उनको  आत्महत्या  के आँसू तो नहीं रुलाता  है
अपने परिवार  की ज़िम्मेदारी भी तो
उसी की है  न .........
किसी सरकार की तो नहीं .....

-कुशवंश


 

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