महेश कुशवंश

27 अप्रैल 2016

बांस की खपच्चियाँ




बांस की खपच्चियाँ
देखीं हैं तुमने
हसिए से चीर कर
कई टुकड़ों मे विभक्त किया जाता है जिन्हें
और वो कभी उफ भी नहीं करतीं
चिर  कर
मानव के काम आने वाली वस्तु बन जातीं है
और अपने वजूद को कभी याद नहीं रखतीं
इस आकार से पहले
क्या था उसका अस्तित्व
शायद ही याद रह पाता हो उन्हें
झुंड मे लहलहाते हुये
आसमान छूते इरादे
शायद ही सोच पाते होंगे
ऐसी गति
फिर भी कोई अफसोस नहीं
बस वर्तमान आकृति पर
गर्व करती खपच्चियाँ
आँसू तो बहाती है
मगर दिखाती नहीं किसी को अपने आँसू
स्त्री और बांस की खपच्चियों मे
शायद ही फर्क होता हो कोई
झुंड मे अठखेलियाँ करती
एक दूसरे को बाहों मे समेटती
ठंडी हवाओं मे गगनचुंबी बातें करती लड़कियां
कहाँ सोच पातीं है
वर्तमान का सच
बहू , पत्नी , माँ और  इस सब के बीच में
चिरी खपछियों सा उसका व्यक्तिव
कहा कर पता है किसी से कोई सवाल
उसी से पूंछे जाते कई कई सवाल
इन सवालों के मध्य और जवाबों के बीच
व्यर्थ हो जाता है
उन्मुक्त उसका अस्तित्व
शायद बिना उत्तर दिये
किसी-किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता शायद
और जब यही खपच्चियाँ
निकल पड़तीं है उत्तर ढूँढने
तो संस्कृति उठ खड़ी होती है
व्यवस्था सर उठा लेती है
आड़े आने लगते है कई दंभ , कई संस्कार
क्या इन्हें आना चाहिए
पूंछिए अपने आप से
और देखिये खपच्चियों की ओर .....
बस...... खपच्चियों की ओर ...

- कुशवंश


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