महेश कुशवंश

25 अप्रैल 2016

अंधेरे का सूरज



कल रात मेरे शहर की
हवा बदल गई
सूरज चढ़ आया था
मगर दिन नहीं हुआ
अंधेरा ही बना रहा
आसमान पर टिमटिमाते रहे तारे

अठखेलिया करता रहा चाँद
दिन चर्या ही शुरू नहीं हुयी
सारी गालियां रहीं सूनी
बस घड़िया नहीं रुकीं
सरपट भागता रहा समय
पेड़ों पर सोये रहे पक्षी
गौरैया तो पहले ही गायब  थी
अब कौए भी
हो गए नदारत
न जाने क्यों नजर आने लगे चील
बहुत नींचे उड़ते हुयी
घरों की मुडेरों पर
इस डरावने अंधेरे मे
इधर उधर बस डरावनी आवाज़
कुत्ते भी नहीं भौके
किसी को कुछ  पता नहीं  चला
ये सब कैसे हुआ
प्रकृति ने क्यों मुह मोड़ा
हरे  भरे पौधों से
क्यों गिरने लगे पत्ते
रह गए ठूंठ संवेदना हीन
खोखली जड़ों से जुड़े हुये
समवेदनाओं से भरे मानवीय सम्बन्धों मे
क्यों हो गई रक्तिम आँखें
मस्तक पर क्यों पड़ने लगी
बदले की रेखाए
ईर्ष्याओ के पहाड़ खड़े  हो गए सब तरफ
किसी रास्ते को बनाने नहीं आए
कहीं से दशरथ मांझी
बस सूरज लेकर भाग खड़े हुये कुछ लोग
इस आशय से की रोशनी
उनकी है सिर्फ उनकी
अधेरे का कोई सरोकार नही
रोशनी बिखेरते सूरज से
कितना भी गहरा जाये अंधेरा
सूरज उसकी गिरफ्त मे रहेगा
रोशनी को कैद कर लेंगे
अपने लिए
सिर्फ अपने लिये
ऐसा कभी हो सका है क्या  ?

- कुशवंश



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