महेश कुशवंश

10 मई 2016

जी लिए बहुत












जी लिए बहुत
और जी कर भी करेंगे क्या
पी लिए आंशू बहुत
कुछ और पीकर भी करेंगे क्या
बचपन
बिना कुछ सोचता फिरता रहा
यौवन
गुलाबी ,
साँझ सी बुनता रहा
बुन लिए
ज़िंदगी के  तार
काँटों के करीब
तने रहकर भी चुभे
झुककर चले तो
चिर गई पीठ
सामने देखा तो मंजर
और भी वीभत्स था
ज़िंदगी से हार माने
बैठा हुआ
कुछ वक्त था
परवाह नहीं की
कभी घड़ियों की,  न बालू की
रात मे ठहरा हुआ सा
कालिमा सा  दिन हुआ
पश्चिमी कोने से निकला सूर्य
था चादर लपेटे
चाँद भी था , चंदिनी भी
सो रही लालिमा समेटे
शुक्र था , उतरा हुआ
मुडेर पर
मेरे शहर
शनि था लटका हुआ सा
दरख्त पर
रात की चादर लपेटे
कार्य सब तैयार थे
वो जो जाएगा  , जिसे जाना है क्षैतिज के पार
कहाँ है
ज़िंदगी से हारकर वो
बैठा कहाँ है
एक जीवन
रक्त रंजीत कर दिया
कूड़ा हुआ
मुफ्त मे मिला जो जीवन , रौद डाला
प्रश्न करता फिर रहा
सारे जहां से , और से
उत्तर छिपाये ,
हृदय मे , झुककर तो पढ़
अपनी परिभाषा बना
रास्ते तो गढ़
जान जाएगा ये जीवन आज भी कितना घना है
इसको कितना जीतने को
तू बना है
समुद्र तट की सीपियां
बीनता रहा
फैले हुये , सामने पानी को देख
तट पर ही बिखरे
मोतियों को भी समझ
चलना तुझे , मीलों है
किनारे भी, अंदर भी
जीतना तुझे है , बालू भी
समंदर भी

-कुशवंश






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-कुश्वंश

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