महेश कुशवंश

1 मार्च 2016

ये क्या हो रहा है..



कहते हैं सब
ये राजनीति वोटों तक ही नही सीमित होनी चाहिए
उससे आगे भी जानी चाहिए
तुम्हारी जाति क्या है
क्या है तुम्हारा मजहब
अगड़े हो क्या
या मनुवादी , या फिर
पिछड़ा
उससे भी पिछड़ा
महा पिछड़ा
दलित
उससे भी दलित
महा दलित
और इन सबका कुछ न कुछ आरक्षण
शब्द बदलते गए
आदमी वहीं का वहीं
राजनीति मे भूचाल आ गया
उसने उसे खीच लिया
उसकी पहुँच उनके बीच अच्छी है
वो सुबह गए
मैं शाम को जाता हूँ
वो रो कर आए थे
मैं उनके घर रात बिता कर आता हूँ
चारपाई मे बैठ कर
दाल भात खाता हूँ
ये देश किसका है
शायद किसी का नहीं
देश द्रोह की परिभाषाएँ बदल गई
बोलने की आज़ादी
मूलभूत अधिकार ही  रह गए याद
देश खो गया
सत्ता की कुर्सी रह गई आँखों के सामने
देश कहाँ  गया
भाई इन्हें सत्ता मे रहने दो
नही तो वो दिन दूर नहीं जब ये
सब कुछ भूल जाएंगे
वोटों के लिए ईमान ही नहीं बेचेंगे
माँ भी पड़ोसियों को दे आएंगे
उनकी कहकर
और सब मिलकर गाल बजाएँगे
सिर्फ गाल बजाएँगे

-कुशवंश

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