महेश कुशवंश

23 फ़रवरी 2016

बदली परिभाषा


कल जब मैं आखिरी बार
तुम्हारे घर से निकला
न जाने क्यों मुझे  सब कुछ
अपना सा लगा
शब्दों की तलवार ने काट रखे थे  मेरे
दोनों बाजू
और मैं खोजता रह गया कलम
लिखने को प्यार की नई परिभाषा
जिस  परिभाषा मे हो
तुम्हारा जिस्म
और मेरे अरमानों का खून
लिव-इन-रीलेशन निभाते रहने की कला
और कब दम तोड़ देगी वर्जनाएं
मुझे  क्या  ?
किसी को नहीं पता
दरवाजे पर बारात का सच
मेट्रो मे दम तोड़ देगा
दरवाजे पर कौन लाएगा सगन
डीजे पर नांच भी नहीं होगा शायद
और आँखों मे भरकर आँसू
नही होगी कोई विदाई
बेटियाँ कब हो जाएंगी बड़ी
देख ही नहीं पाएंगे हम
सर पर हथौड़े सा सच
घर मे हैं  एक बेटा भी जो
नही करना चाहता शादी
पता नहीं क्यों ?
मैं मुसकुराता हूँ
अपनी अनविज्ञता पर
ढूंढ कर लाता हू  शादी का अल्बम
जिसमे खजूर  के परों से बनी मौरी पहने तुम
मुझे दिखाई नहीं देती
बस दिखते है तुम्हारे
लाल रंग से रंगे हाथ और आलता लगे पैर
ढोलक की आवाज़
और सगुण गीत गाती प्रफुल्लित स्त्रीयां
वो कोने मे कच्चा सा घर
और उसके आगे , कोलाहल करते
नंगे-उघारे बच्चे
दूर तक कार का पीछा करते , शोर मचाते
धूल मे ढूंढते
उड़ते मखानों और सिक्कों को,
फिर पसर जाएगा सन्नाटा
बेटी के विदा होने का सन्नाटा
जाने लगेंगे , नाते रिस्तेदार
रह जाएँगे बस भुगतान मांगते लोग
साहूकार के आदमी
और
डेढ़ किलो रोज दूध देने वाली गाय
और सच को बयान करते
ना समझे लोग
सिर्फ ना समझे लोग
-कुशवंश



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