महेश कुशवंश

30 सितंबर 2015

आत्मा की मुक्ति



बहुत याद कर चुके मुझे  
अब बस करो  
अहिंसा  की  लड़ाई  मेरी थी  
लड़ी भी मैंने  
अब तुम कहते रहो  
शहीद  भगत सिंह  को  मै  
बचा सकता था 
चन्द्र शेखर आज़ाद से मेरी अनबन रही  
सरदार पटेल  से मुह बिगड़ता  था मेरा  
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को   
मेरे कारण छिपना पड़ा  
कुछ भी कहो मैं  
किसी का भी  उत्तर नहीं दूंगा  
जवाहर लाल नेहरू  की तरफ झुकाव  का भी नहीं
और अगर दूंगा भी तो क्या तुम मान लोगे  
विरोध के लिए  
विरोध तो करोगे ही ना   
मैं गांधी........   
नहीं कहता  
मुझे महात्मा कहो 
मुझे एक आत्मा ही रहने दो  
अपनी सोच के साथ  
सिर्फ एक आत्मा
मेरे ब्र्म्ह्चर्य के अर्थ कुछ भी निकालो  
चस्में, लाठी और धोती  
की  जो चाहो पहचान बना लो  
मैं आज भी वही  रहूँगा
क्रशकाय  , गहरी आँखों  से तुम्हारी  आँखों मे  
अहिंसा के बीज बोता  
मोहनदास करमचंद  गांधी  
तुम मुझे बापू  कहते हो  
अच्छा लगता है  
मुझे रास्ट्रपिता  क्यों बनाया  
जब मुझसे  पुत्रब्रत का  व्योवहार  नहीं करते  
मेरी  कोई बात नहीं  रखते  
मैंने तो नाथूराम गोडसे  को उसी दिन  माफ कर दिया था 
जब उसने  मेरे पैर छूए थे  और गोली मार दी थी 
तुम क्यों गड़े मुर्दे  उखाड़ते हो   
मुझे क्यों पेशोपेश मे डालते हो 
गोडसे एक सोच का नाम था 
उसने एक सोच को मार दिया 
उसे अधिकार था 
अपनी सोच को जाहिर करने का  
अच्छा होता  , मैं उसे समझता वो मुझे  
तो शायद कोई गोली नहीं चलती   
और न ही मैं 
पार्टियों के बीच बटा होता   
प्रतिवर्ष  मेरा जन्म दिन मनाते हो   
मेरे प्रिय भजन गाते हो 
मगर  गांधी को  न जाने कहाँ  छोड़ आते हो
मैं आज भी 
वही 
राजघाट पर  
उसी जलती  मशाल पर  कातर  आँखों से देखता  
तुम्हें  देख रहा हू  
शायद तुम  मुझे समझ सको      
और मुझे मुक्त कर सको 
आज़ाद कर सको  
अपने  सपनों   के भारत   से  
सदा के लिये   
हमेशा  के लिये 
आखिर  
आत्मा की  मुक्ति भी तो होनी  चाहिए  .......

कुशवंश

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