ये मेरा देश है
जहां अवतार लेते है
न जाने कितने भगवान
हमे संस्कारित करने को
जन्मते है ,
ना जाने कितने साधू प्रव्रति के लोग
मगर देश है की वहीं खड़ा है
उसी मुहाने पर
संकृति के अपभ्रंश के उसी सोपान पर
गली मोहल्लों मे लगने लगे है पांडाल
रात दिन बजते है तेज ध्वनि मे भक्ति श्लोक
पूजा आरती , ढ़ोल नगाड़े
ईस्वर को रिझाने की कोशिस
विदाई मे जलावतरित तुम
क्या देकर जाते हो
जान न्योछावर हो जाने के बाद भी
मन मे वही नकारतमकता
धर्म के प्रति अशहिष्णुता
धर्म की धर्म के प्रति वैमनस्यता
कुर्बानी का जज्बा तो है
मगर, कातर निगाहों से दया की भीख मांगते
मूक ,निर्बोध की
कुर्बानी
हृदयों मे धनात्मकता उगाने मे
शायद ही कामयाब हो
बस धर्म के नाम पर
हृदयों मे व्याप्त डर मिटा ले शायद
और धर्मानुयायी बनकर
अधर्मी होने से बच जाएँ
संभावनाओं के युग मे असीमित समभावनाओ
के संसार मे
सोच को विस्तारित करने का वक्त है शायद
सडी गली मान्यताओं को
तिलांजलि देने का वक्त है शायद
गाय हमारी माँ है के साथ साथ
जन्म देने वाली माँ के लिए कर्तव्य निभाने का वक्त है शायद
मान्यताए कितनी भी सडी गली क्यों न हों
माँनवता की खुशबू से सराबोर होनी चाहिए
मानवीयता को जन्म देने वाली होनी चाहिए
मंदिरों मे नंगे पाव नहीं बुलाते भगवान
हम चले जाते है ये बताने की
हमारी अकाट्य श्राद्धधा है तुमपर
और इसके इतर
अनहोनी का डर भी हमे नंगे पाव कर देती है
सर्वभौम सत्य हमारे उश्च्हरंग मन को बांधे रखता है
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च से बाहर आते ही
मन तितली हों जाता है
इस तितली को निर्देशित करना
किसी के बस मे होता है तो
बस स्वयं के
और ये स्वयं तो
किसी के भी बस मे नहीं है शायद
भगवान के भी नहीं ....
-कुशवंश
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