महेश कुशवंश

28 मई 2015

बैंक वेज़ रिवीजन











शोर उठा
हो गया ........हो गया .....हो गया ....
वेज़ रिवीसन हो गया
अखबारों ने लिखा.......छप्पर फाड़ के मिला
सभी कैलक्युलेशन मे मस्त हो गए ....
एक लाख ... दो लाख ... तीन लाख ..... चार लाख ....
सीना फूलने लगा ....
शाम को घर पहुंचा ....
पत्नी का मुह फूला था
माजरा समझते देर न लगी
अविस्वास की कातिल निगाहों
ने कलेजा हिला दिया
मैं गुनहगार सा नज़रें चुरा रहा था
जुमला उछला .... कहाँ रख आए
ये सेट्टल्मेंट किस सौतन से कर आए
कितना मिलेगा .... किसको बताओगे
इस घर के सिवा और कहाँ जाओगे
वो रात प्लासी के युद्ध सी कटी
सुबह जब दरवाजे की घंटी बजी
लाल आँखों से जैसे ही दरवाजा खोला
दूधवाला पानी मिला दूध तो दे गया
बाबूजी अब पचास नहीं साठ  रुपये किलो मिलेगा
आपका तो हो गया ..... हमारा भी बढ़ेगा
चाय भी नहीं पी पाया था ..... फिर घंटी बजी
सालों से मुह छिपाये मकान मालिक
सामने आ गए ....
भाई  साहब किराया पाँच हज़ार बढ़ेगा ...
इसी महीने से चुकाओ ... या खाली कर जाओ
सब्जी वाला , प्रेस वाला , परचून वाला .... न जाने कौन कौन
दरवाजे पर खड़े थे
सभी दाम बढ़ाने पर अड़े थे  
जैसे तैसे ..... आफिस के लिए निकला
आफिस में ...ज़ोर से चर्चा थी
बाबुओं को तुरंत मिलेगा ...अफसरों को चार महीने बाद
आफिस की छत घूमने लगी
मेज कुर्सी जगह से हिलने लगी
भूकंप नहीं आया था
मगर घर के दरो , दीवारों और दरवाजे पर
सैलरी रिवीसन का  जलजला आ चुका था
जलजला ......वो 
जो तहस नहस को तैयार था


-कुशवंश

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