महेश कुशवंश

29 मई 2015

लक्ष्मणरेखा



एक शाम जब सूरज
अस्ताञ्चल को था
सारा आकाश
रक्त सा सुर्ख हो गया
इतना सुर्ख की चेहरे हो गए रक्तिम
मानो किसी निःसंश हत्या मे सने चेहरे
डूंढते फिरते हों कोई दर इंसाफ का
कोई जमानतगीर .......
आज की सुबह
चिड़ियाँ तो चहचहाई थी
भौरे भी मडरा रहे थे बाग मे
फूलों के इर्दगिर्द,
और फूल कुछ अलसाए से , कुछ गुरूर मे
भौरो से कर रहे थे अठखेलियाँ
कुछ भौरे हद से भी गुजर रहे थे
पंखुड़ियों की हद को भेदकर
पराग को भी स्पर्श कर रहे थे
फूल भी कुछ सकुचाये , कुछ लजाये , 
कुछ शर्म हया को ताक पर रखे
भौरो से प्रणय क्रीडा करते
भूल रहे थे लक्ष्मणरेखा
किसे याद है ये रेखा ,
हद को बांधती
उछरंग स्वतन्त्रता की
मुसके कसती ये रक्तिम रेखा
युवाओं के ज्यादा ये
चुके-युवाओं को ज्यादा अखरती है
टूटती –फूटती ये पौराणिक रेखा
किसी राह चलती मर्यादित –अमर्यादित के 
भेद देती है वस्त्र
आँखों से उतरकर कही अंतर तक
सारा कुछ हो जाता है रक्तिम ,
रक्तरंजित हृदय भूलने लगता है 
अच्छे-बुरे का भेद
और यही परिणति उसके चेहरे पर उतर आती है
सूर्य जो उजाले मे सारा कुछ
देखता है , सुनता है , महसूस करता है
भागकर छिपने लगता है
मानो अंधेरे मे उसके सारे दोष छिप जाएँगे
उसे दाग रहित घोषित कर दिया जाएगा
मगर वो नियति से नही भाग सकता
उसे फिर उगना होगा
और सहना होगा
अपने दामन पर लगे दाग
कुछ और गहरे करने के लिए ......
क्योंकि लक्ष्मणरेखा अब किसी को याद नही.


-कुशवंश


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