घर कभी
जीने का नाम है
और कभी
रिस्तो को सीने का नाम है
सूर्य की किरने
धरती पर जब भी
अकेले आती है
घरों मे सम्बन्धों की
गर्मी बिखेर देती है
और इसी गर्मी मे
पसीने से सराबोर श्रमिक
आसमान निहारता है
ढूँढता है कोई इंद्रधनुष
शाम हो जाती है
करीने से उभरते हैं सप्तरंग
उसे कहीं भी उल्लासित नही करते
उसके स्वेद बिन्दु नहीं मिटते
भूंख की चीत्कार
उसे घर नही लौटने देती खाली हांथ
नेपाथ्य मे खोंजता है वो
बढ़े हुये पंजे
रक्त रंजित दांत
और रक्त से सराबोर घूरती आँखें
समय बीतता है
पीठ से लगा पेट
उसे रक्त बैंक की ओर मोड देता है
जहां रोटी की राह मे
निचोड़ लेते है नेवले
नाड़ियाँ चिपकने तक
जीवन बूंद
वो लौटता है घर रोटियों के साथ
पश्चिम मे ढल रहा है सूरज
आसमान लाल है
जैसे किसी ने कत्ल कर दिया हो घर
और बिखेर दिया हो
यहाँ वहाँ ........न जाने कहाँ कहाँ .......
-कुशवंश
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