महेश कुशवंश

16 मई 2015

नेवले



घर कभी 
जीने का नाम है 
और कभी 
रिस्तो को सीने का नाम है 
सूर्य की किरने 
धरती पर जब भी 
अकेले आती है 
घरों मे सम्बन्धों की 
गर्मी बिखेर देती है 
और इसी गर्मी मे 
पसीने से सराबोर  श्रमिक
आसमान निहारता है 
ढूँढता है कोई इंद्रधनुष 
शाम हो जाती है 
करीने से उभरते हैं  सप्तरंग 
उसे कहीं भी उल्लासित नही करते
उसके स्वेद बिन्दु नहीं मिटते 
भूंख की चीत्कार
उसे घर नही लौटने देती खाली हांथ 
नेपाथ्य मे खोंजता है वो 
बढ़े हुये पंजे 
रक्त रंजित दांत 
और रक्त से सराबोर घूरती आँखें 
समय बीतता है 
पीठ से लगा पेट 
उसे रक्त बैंक की ओर मोड देता है 
जहां रोटी की राह मे
निचोड़ लेते है नेवले 
नाड़ियाँ चिपकने तक 
जीवन बूंद
वो लौटता है घर रोटियों के साथ 
पश्चिम मे ढल रहा है सूरज 
आसमान लाल है 
जैसे किसी ने कत्ल कर दिया हो घर 
और बिखेर दिया हो 
यहाँ वहाँ ........न जाने कहाँ कहाँ .......

-कुशवंश

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