महेश कुशवंश

17 मार्च 2015

मन करता है





आज साँझ  से भौरा मन
मचला जाता है 
उनसे मिलने को 
प्यार का स्वर गाता है 
सूरज ने फैली तपिश को 
छिपा लिया है 
चाँदनी ने गुलाबी सा मौसम किया है  
चाँद तुम्हारे शबनम से 
शर्मा जाता है 
ऐसे मे कुछ रेशम रेशम 
मन होता है 
हवा से हल्का 
छूयी-मुयी सा 
तन होता है 
ऐसे मे कुछ आते  हैं 
जज़्बात नये
मिल जाएँ   
इस निर्झर मन को
सौगात नये
ऐसे मे बस रेशम सा 
चमन होता है 
बया हो जाएँ 
सपनों से संचित जो  अंतर 
रेशम सी फिसलन का थोड़ा 
मन करता है 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

हिंदी में