महेश कुशवंश

24 मार्च 2015

चीथड़ों मे लिपटे अन्नदाता


मन की बात
कौन कह पाता है
वही जिसने मन को गहरे तक पहचाना हो
क्योंकि मन बड़ा चंचल होता है
और मन की बात कहते कहते  भूल जाता है
उसे कहनी है अपने मन की बात
कही दूर तक निकल जाता है ढूँढने अपने मन की बात
उसे कुछ कहने को नहीं मिलता अपने मन का
बस जो भी रास्तों मे भोगता है
कहने लगता है अपने  ही मन की जान कर
असमय मौसम मिजाज बदलता है
मन असहाय खेतों को भागता है
मगर अपनी लाश बिछी पाता  है
निर्जीव सा वो अपने पेट को पीठ से चिपका पाता है
कोई दवा उस गिरी लाश मे जान नहीं भर सकती
प्रकृतिक थपेड़े उसे जीने ही नहीं देते
गेहूं ,मटर,चना और क्या क्या गिनाये
कितनी लाशों का हिसाब लगाएँ
कभी बाढ़ , कभी सूखा  और कभी साहूकार
उसे जीने ही कहाँ देते है
फसल अच्छी हुयी
अउने-पउने मे दरवाजे से ही भर ले जाते है दबंग
महगाई कभी कम नही होती
किसान भूखा सोता है , लहलहाती फसल के बाबजूद
कर्ज मे दबा कभी तहसील की हवालात मे सोता है
कभी खेतों को,  कभी ट्रैक्टर को बैंचकर भी  नहीं भर पाता कर्ज
साहूकार और रेकवरी एजेंट को देखकर
खेतों मे दुबक जाना है उसकी नियति
कितनी भी सरकारें आयें
सब्जबाग तो सब दिखाती है
चिथड़े मे लिपटे अन्नदाता को  मंच पर  गले भी लगाती है
फिर सैनीटाइजर से  हाथ साफ करती है
उसके मन तक कभी नहीं उतर पाती
सच्चे अर्थों मे कौन समझेगा मन  के आघात
और समझेगा मन की बात
अभी इसे सुनने बहुत दूर जाना है
जो भी सुनना चाहेगा  उसे दिखाई देंगे
चीथड़ों मे लिपटे अन्नदाता के रक्त कण
देख सकोगे .....

-कुशवंश

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