महेश कुशवंश

9 फ़रवरी 2015

ईस्वरी बाबू




एक शाम होने को थी 
दिन भर काम से बोझिल वो 
अपने घर को लौट रहा था 
मन मे 
दिन भर की उलझन लिए हुये 
सुबह से उसकी कोई काम नही हुआ 
न बेटी के लिए कोई वर
न लड़के के लिए कोई शहर 
जहां दो  रोटी कमा सके 
सुबह जब घर से निकला था 
तो पोर पोर दुख  रहा था उसका 
प्रभात बेला मे 
सूरज का मुह देखने के बाद भी 
ताज़ा नहीं था वो 
सरकारी नौकरी के मात्र छह महीने बचे थे
और पहाड़ से कर्तव्य  और जरूरतें 
स्कूटर पर उसको झटका लगा 
और वो गिरते बचा 
सामने से आ रही बस से बाल बाल बचा 
उसने स्कूटर  किनारे कर रोका 
ताकत से स्टैंड खीच कर  बाउंड्री वाल का सहारा लेकर 
सास  थामने लगा 
उसका हृदय धौकनी सा चल रहा था 
यमराज उसे बिना लिए निकल गए थे 
और पीछे मुड़कर कह रहे थे 
अबकी तो बच गये..........
उसने सोचा 
कर्तव्यों से इतिश्री  क्या इतनी आसान है 
ये तो यमराज को भी सोचना था 
लेकिन करे तो क्या 
किंकरतवयविमूढ़ उसने फिर स्कूटर स्टार्ट किया 
घर पहुचा 
दरवाजे पर भीड़ जमा थी 
किसी अनहोनी की आशंका से 
ईस्वरी बाबू का दिल धड़कने लगा 
स्कूटर दरवाजे पर रोका 
और तेजी से घर मे घुस गए 
घर मे बैठक ठसाठस भारी थी 
मोहल्ले के सर्वमान्य लोग 
ठहाके लगा कर रसगुल्ला उड़ा रहे थे 
आओ आओ इसवारी बाबू 
बिटिया आई ए यस हो गई  
ये लो तुम भी रसगुल्ला खाओ
ईस्वरी बाबू को विशवास ही नही हो रहा था 
मरते मरते बचा वो 
इस खुशी के लिए ही बचा था क्या 
शायद ..........

-कुशवंश


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