महेश कुशवंश

30 जनवरी 2015

आकृति













एक दिन
सोकर नहीं उठ पाया था मैं\
हाथों  को हिलाना चाहता था
हिलते न थे
पैर भी अपनी जगह पर जम गए थे
पुतलिया आँखों कि बस स्थिर सी थीं
एक टक नेपथ्य को
बस देखती थी
आँखों में आवाज़ गूंजी
आठ बज गए
जाना नहीं है क्या
कोई प्रतिक्रया न देख
पत्नी ने हिलाया
और हडबढाकर उठ बैठी
पूरी तरह झकझोर डाला
मै वहा होता तो हिलता
मुझे तस से मस न होते देख
उसकी चीख निकल गयी
उसके पैर जो सुबह चलने को मुस्किल से तैयार होते थे
सीधी खड़े थे
मै अलमारी के ऊपर बैठा इस हडबडाहट को देख रहा था
उसे समझ नहीं आ रहा था क्या करू ?
किसी को फोन करना चाह कर भी नहीं कर पा रही थी
वो कभी मेरे सीने पर कान रख कर धड़कन सुनती
कभी कलाई पकड़कर नब्ज़
सर्द सुबह वो पसीने से  नहा गयी थी
मैंने सोचा मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ
अपने ही वजूद से अलग
मैंने अपनी आकृति पहचान ली थी
उससे दूर एक बृहद बदलाव
मुझे रास नहीं आया
न ही विद्रूप सा उसका चेहरा
जीवन के उतार चढ़ाव में बहुत से रूप देखे थे
मगर ये ह्रदय विदारक रूप
मेरी सहनशक्ति से परे था
मैं अलमारी से उतर कर आकृति के आकार में था
मैंने बेसुध पड़े उसके कंधे पर हाथ रखा
तुमने मुझे  जगाया नहीं
आफिस को लेट हो जाऊंगा
वो ऐसे थी जैसे करेंट लगा हो
और मेरे कंधो से लिपटकर दहाड़ मार कर रो रही थी
मुझे कुछ समझ नहीं आया
अरे क्या कोई सपना देखा
वो बता भी नहीं सकी कौन सा सपना था .....
सपने में क्या देखा था ......

-कुशवंश


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