महेश कुशवंश

16 जनवरी 2015

मंगल गृह


सूरज अभी
बादल मे था
चाँद भी
निकला रहा
झुरमुटी सुबह कुछ कुछ
हो रही थी धीरे धीरे
चिड़ियों ने था कलरव छेड़ा
पाहुन छोड़ गए बसेरा
स्वाशों मे भी सम्बन्धों का
महक रहा था
डेरा डेरा
ऐसे मे अलसाई आंखे
इस उस खिड़की
ताके झाँके
तन मे
मन मे
सोया हिरना
चाहे भरना ब्रहद कुलांचे
मगर शब्द, आखे सब मौन
रोक रहा मुझको ये कौन
हृदय टटोलूँ
आँखे खोलूँ
कैसे स्वप्न इज़हार करूँ
सदियों से जो अंतर मन मे दबा हुआ था
कैसे उस पर वार करूँ
आओ कुछ पन्नों को रंग लूँ
शब्दों का श्रिंगार समझ लूँ
फिर से अणु मैं करूँ एकत्रित
मंगल गृह
निर्माण करूँ

-कुशवंश

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