महेश कुशवंश

20 जुलाई 2014

जो छली जाती रही


बताओ फ़रहाद
क्यों की ऐसी साजिश तुमनें
मिलकर मेरे अपनों के साथ
क्यों करते रहे झूठा प्यार
और जल क्रीडा से भर्माते रहे ह्रदय
बाधते रहे
निश्चल प्रेम के सोपान
तुमने कहा तो होता
मै तुम्हें अब नहीं चाह्ता
मानाकि
आज़ जैसी शिरिन है
मैं कभी पह्ले थी
मगर शिरिन भी
कल मेरे जैसी होगी
तब उसे भी छोड दोगे
उसे भी कच्चे घडे में डुबो दोगे
सदियों तक जो लोग देते रहे
अमर प्रेम का नाम
लेते रहे आदर से मेरे साथ
तुम्हारा नाम
आज बताती हूं
तुमने कभी मुझे न समझा
न ही किया था कभी प्यार
वो तो मैं थी जो तुम्हें बनाती रही महान
प्यार का प्रतिमान
क्योकि
सदियों से जो छली जाती रही
वो मैं ही तो थी
शीरी नहीं स्त्री
सिर्फ़ स्त्री
जो छली जाती रही
कभी धर्म के नाम पर
कभी कर्म के नाम पर
कभी मर्यादाओं के नाम पर
और बनाते रहे तुम्हारे जैसे लोग
मुझे अमर.

-कुश्वंश

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-कुश्वंश

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