मन
तुम एक नहीं सुनते
अपनी धुन में रहते हो
निरर्थक
जहां चाहे चल देते हो
सोचते हो
अन्ज़ाम के होने के बाद
संसार, परिवेश, धरोहर
तुम्हारे लिये सब निर्मूल्य
मुल्यवान तो बस वर्तमान
जिसे अपनी शर्तो पर जीते हो तुम
उसे देखो
उस ह्रदय को
रक्तरन्जित होकर भी
हमारी सुनता है
सहकर सभी दुख
दर्द
हमारे भी
तुम्हारे भी
उफ़ नही
करता
फ़ेल होने पर भी
ना ही
करता है
कोई बगावत
और ना
विरोध
और वो
प्राण !
जी कर
भी हमें
अह्सास कराता है
हमारे मूल्य
हमारी नस्वरता
रे मन
धिक्कार है
तुम्हें….
………………………
इन्ही उधेड्बुन में
मन को
नकारता
उसे नैतिकता का अध्याय पढाता
सो गया
मैं
मगर उठा
तो
उठ ना
सका
मैने आस-पास
टटोला
मारता रहा
इधर-उधर हाथ
मगर नही
चले
मुझे शक
हुआ
मैं निर्जीव हूं ?
हां मैं
निर्जीव ही
था
मेरे
मन, ह्रदय और
प्राण
मुझसे बगावत कर चुके थे
मन ने
उनमें
मेरे प्रति
भर दिया था आक्रोश
और वो
मेरे सामने
मुझसे खडे
थे दूर
बहुत दूर..
behad gahan
जवाब देंहटाएंमन की सुनिये--आज को जिये---बाकी सब आता-जाता रेला है---झमेला है.
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