वो बड़े तड़के
सूरज निकलने से पहले
मेरे सिराहने खड़ी हो जाती है
मेरे बालों को सहलाती है
तब तक
जब तक मैं जाग नहीं जाता
मेरे जागते ही
वो अपने कमरे मे चली जाती है
और मेरे शाम तक
मुझे कहीं नज़र नहीं आती
कभी कभी कमरे की खिड़की मे
नज़र आती है
कभी अखबार पढ़ते
कभी रामायण पढ़ते
जब कभी भी
मैं भी गौर से देखता हू
वो निरे वात्सल्य रस से सराबोर
मुझे निहारती है
अपनी बात कभी नहीं कहती
बस सुनती है
और मुसकुराती है
मैं बस देखता रहता हूँ
निरुत्तर सा
खोजता हू ऐसे शब्द
जो कह सकू
मगर मुझे नहीं मिलते कोई शब्द
कहीं भी
जो मुझे प्रतिबिम्बित कर सकें
उस आईने सा
जो सफ़फाक चित्रों सा परिभासित हो
और जो मेरा चेहरा
वैसा ही प्रदर्शित कर सके
जैसा मैं हूँ .॰
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-कुश्वंश