महेश कुशवंश

31 मई 2014

आक्रोश



तुम क्यों प्रार्थना करती हो
क्या चाहिए तुम्हें
अभी तो जी कर आयी हो
फिर क्यों जाना चाहती हो
वहीं
जहां उत्पन्न होने से पहले
तुम्हें मारने के प्रयास होते हों
मुखौटे ओढ़कर
कभी तथाकथित पिता बनकर
कभी जाने पहचाने
कोई और रिस्ते बनकर
तुम्हें बता दू
कोई रिस्ता  भरोसे का नहीं रहा वहाँ
एक बाप भी कर लेगा घिनौना शोषण
एक माँ बेंच देगी
भूंख की आड़ लेकर
बहुत से अन्य करीबी
बनते बिगड़ते रिसते
कब बन जाएँगे  मांसाहारी  गिध्ध
नोचने को तत्पर
मैं भी नही जानता
तुम क्यों वहाँ जाना चाहती हो
जिन पर मुझे भी नही रहा विस्वास
जगह जगह
हमारी उपस्थिति होते हुये भी
कोई नहीं मानता
हमारे संस्कार, परम्पराएँ
किसी को नहीं होता कर्तव्यबोध
नहीं निभाता कोई भी धर्म
देखो नीचे
उस पेड़ पर लटकी अपनी हमशक्ल
जो अभी  अभी लटका दी गई है
आबरू लूट कर
और लुटेरे  अट्ठाहास कर
छोटी  गलती कर क्षमा कर दिये जाएँगे
उस पेड़ के आस-पास जमा
मिट्टी के पुतले
छाती पीट लेंगे
क्या करोगी तुम वहाँ जाकर
सोचता हूँ मैं
अपना संकल्प बदलू
रोक दूँ  कोई भी जन्म
तुम्हारी  हमशक्ल् का  पृथ्वी पर
भंग कर दूँ सारी व्यवस्था
उलट दू सारा ब्रांहांड
रोक दूँ सूर्य की तपिश या बढ़ा कर कर दू राख़
स्वयं को भी

-कुशवंश







2 टिप्‍पणियां:

  1. सोचता हूँ मैं
    अपना संकल्प बदलू
    रोक दूँ कोई भी जन्म
    तुम्हारी हमशक्ल् का पृथ्वी पर
    भंग कर दूँ सारी व्यवस्था
    उलट दू सारा ब्रांहांड
    रोक दूँ सूर्य की तपिश या बढ़ा कर कर दू राख़
    स्वयं को भी
    शायद यही अन्तिम कदम होगा !
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-कुश्वंश

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