महेश कुशवंश

16 सितंबर 2013

असली दंगों के असली भेड़िये ........ कौन ...?



दरवाजे की
घंटी बजती है
दरवाजे पर शकीरा की बेटी खड़ी है
अम्मी ने एक कटोरी चीनी मागवायी है
वो कटोरी आगे बढ़ा देती है
आओ बेटा
मै चीनी से कटोरी भर देती हूँ
और काम काज मे लग जाती हू
शकीरा ने कब चाय बनाई
और किसे पिलाई नहीं जानती
शाम होती है
शकीरा के घर मे गहमा गहमी है
मेरे पति अभी अभी आए है
मै उनको  चाय देती हूँ
तभी ज़ोर ज़ोर से दरवाजा पीटा जाता है
कौन  है बद्तमीज़
मेरे पति तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ते है
मै उनके पीछे-पीछे हूँ
दरवाजे पर हुजूम है
लाठी डंडों से लैस
वो धकेलकर अंदर घुस जाते है
और सारा घर तहस नहस कर देते है
मुझे और मेरे पति हो
मरणासन छोड़ जाते है
फिर गहमा गहमी
चीखने चिल्लाने की आवाज़
घर मे कई और घुश आते है
कोई मुझे पानी पिलाता है
कोई पति की मरहम पट्टी करता है
और ज़ोर ज़ोर से नारे लगाते है
और बाहर निकल जाते है
भागो भागो का शोर
पूरे मोहल्ले मे फैल जाता है
आती है शायरन की आवाज़
धम्म धम्म ,
भारी भरकम  जूतों की  लय माय ताल
लाउडिस्पीकर की आवाज़
कोई घर से न निकले
कर्फ़ू लगा है
दूर कहीं गूँजती है हैलिकोपटर की आवाज़
मरने वालों को सरकारी नौकरी
मुआवजा और सांप्रदायिक सद्भाव से रहने की शीख
मै दहशत मे हू
शकीरा सेप्टिक से जूझ रही है
जो मेरी भेजी हुयी शक्कर मे निकली पिन से हुयी
घोषित की गई थी
दंगों मे  सत्ताईस लोग मारे गये
कितने किस धर्म के
नही पता
कैसे शुरू हुआ दंगा
जीतने मुह उतनी बाते
कोई कटोरी भर चीनी को मानता है
कोई
मेरे सर मे बंधी पट्टी को
किसी को इतनी फुर्सत कहाँ
जो तलाशे
असली गुनहगार , असली भेड़िये
जानते हुये भी ........

4 टिप्‍पणियां:

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-कुश्वंश

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