महेश कुशवंश

28 जुलाई 2013

मैं फूल




तुम्हें  अपनी  कहानी 
बताता हूँ 
मुझे  सींचते हैं, खाद  पानी करते 
खिलने के इंतज़ार में 
गमलों को  रंगते 
पीली सूखी  पत्तियाँ  बीनते 
कार्य से निवृत  लोग 
सूखी लटकती  
झुर्रियों भरी खाल से लिपटी हड्डियों से 
अटूट दोस्ती का  रिश्ता निभाती 
जिन्दगी 
मुझे खिले देखकर 
आँखों में आंसू भरके 
सवाल करती है
 पालपोस कर
तुम्हारे  सुगन्धित होने तक 
धैर्य को मजबूती से पकडे कितना और चलना होगा 
मैं फूल 
निरुत्तर सा  जवाब कहाँ से दूं 
मैं क्या कहूं ………। 
खिलने तक 
एक एक पखुडी पर  व्यक्तिगत  अटेंशन 
मगर टूटते ही   
कुचैले कपडे में बंधा मैं 
बाज़ार में बिकता 
मंदिर में ,
ईश्वर के सर चढ़कर भी 
क्या ? 
ठीक रही मेरी जीवन  यात्रा 
मैं तुम्हें क्या जवाब दूं  
न  जाने  कहाँ -कहाँ  खाए हैं जख्म मैंने 
तुम घायल  हो 
मगर इसमें  मैंने क्या किया 
मैंने स्वयं खाए हैं 
अनगिनित  जख्म 
तुम फिर भी  कहते हो 
जख्म जो  फूलों ने दिए …… 

…। 


5 टिप्‍पणियां:

  1. एक फूल की दिल-दास्ताँ ....बहुत खूब

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  2. बाज़ार में बिकता
    मंदिर में ,
    ईश्वर के सर चढ़कर भी
    क्या ?
    ठीक रही मेरी जीवन यात्रा
    मैं तुम्हें क्या जवाब दूं

    waah!

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  3. खुबसूरत फूलों की दर्द की अभिव्यक्ति... बहुत बढ़िया

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-कुश्वंश

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