महेश कुशवंश

10 जुलाई 2013

दर्द संजोता रहा कहीं कोई .



कितने खुले रहे गेसू 
खेलता  रहा 
रात भर 
कोई 
आँखों में नींद 
नींद में कोई नहीं  
क्यों सोचता रहा रात भर 
कहीं कोई
शब्द कोई अर्थ नहीं होते 
कभी  कभी
अक्षरों से शब्द पिरोता रहा 
कहीं  कोई
तुमने तो चाँद पर 
जाने की बात सोची थी 
अमावस के 
कलंकित चाँद को 
जमी पर 
लाता  रहा कोई
कहीं पर बाँध बन के टूटा 
कोई शैलाब 
छुप  रहा था कही

आंशुओं से हाँथ भिगोता रहा 
कहीं कोई 
छोड़ दे कैसे 
खुशनुमा 
ख़्वाबों  के महल
बनके पहरेदार 
दर्द संजोता रहा 
कहीं कोई .

-कुशवंश

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर प्रभावी भाव ....
    शुभकामनायें!

    जवाब देंहटाएं
  2. कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति ....

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही लाजवाब प्रस्तुती है भाई जी।

    "वो महफिल में नहीं खुलता तनहाई में खुलता है
    समंदर कितना गहरा है ये गहराई में खुलता है ! "~मुनव्वर राणा

    पधारिये और बताईये  निशब्द

    जवाब देंहटाएं
  4. प्यार में दर्द ही दर्द ...

    जवाब देंहटाएं
  5. कल 14/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  6. भावो की सुंदर प्रस्तुती

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर...
    कोमल अभिव्यक्ति..

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

हिंदी में