कितने खुले रहे गेसू
खेलता रहा
रात भर
कोई
आँखों में नींद
नींद में कोई नहीं
क्यों सोचता रहा रात भर
कहीं कोई
शब्द कोई अर्थ नहीं होते
कभी कभी
अक्षरों से शब्द पिरोता रहा
कहीं कोई
तुमने तो चाँद पर
जाने की बात सोची थी
अमावस के
कलंकित चाँद को
जमी पर
लाता रहा कोई
कहीं पर बाँध बन के टूटा
कोई शैलाब
छुप रहा था कही
आंशुओं से हाँथ भिगोता रहा
कहीं कोई
छोड़ दे कैसे
खुशनुमा
ख़्वाबों के महल
बनके पहरेदार
दर्द संजोता रहा
कहीं कोई .
-कुशवंश
बहुत सुंदर प्रभावी भाव ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें!
कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति ....
जवाब देंहटाएंbhaavpoorn
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब प्रस्तुती है भाई जी।
जवाब देंहटाएं"वो महफिल में नहीं खुलता तनहाई में खुलता है
समंदर कितना गहरा है ये गहराई में खुलता है ! "~मुनव्वर राणा
पधारिये और बताईये निशब्द
प्यार में दर्द ही दर्द ...
जवाब देंहटाएंकल 14/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
very touching creation !
जवाब देंहटाएंभावो की सुंदर प्रस्तुती
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंकोमल अभिव्यक्ति..
सादर
अनु
बेहतरीन पंक्तियां....
जवाब देंहटाएं