कोई और नामकरण मत करो
कोख मैं जानते ही
कौन हूँ मैं
मैंने
महसूस किये थे तुम्हारे
ठिठके हाँथ
खोखली हंसी,
ठिठकी सी खुशी
जन्म लेते ही विद्रूप हँसी बनकर
बधाई स्वीकार करते
तुम्हारे ठन्डे हाथ
किसको बेवक़ूफ़ बनाने लगे हो तुम
पीछे मुड़कर देखो
मैं ना भी नज़र आऊँ
तो भी
तुम्हे तुम्हारी माँ नज़र आयेगी
तुम्हारी बहन नज़र आयेगी
और मेरी ही तरह होगी आँखे उनकी भी
कातर
एक फ़रियाद करते
मुझे स्त्री रहने दो
देवी न बनाओ
स्त्री और देवी के बीच तुम्हारा कोई पड़ाव नहीं होता
न ही होता है
संवेदनाओं का कोई मचान
जहां से बैठकर तुम
क्षितिज को भूमि से मिलते
देखतो तो हो
महसूस नहीं करते
तुमसे कुछ मागो तो
अध्यात्म के दुरूह पन्ने खोलने लगते हो
और खोज कर ले आते हो
कोई सीता
कोई द्रोपदी
और कर देते हो मेरा अस्तित्व गड्ड-मड्ड
और मैं
अस्तित्वहीन
कभी खुद से कभी कायनात से
सवाल करने लगती हूँ
कोई है जो मुझे बताये
कौन हूँ मैं
स्त्री तो बिलकुल भी नहीं समझता कोई
दामिनी या ....
महिषासुर मर्दिनी
क्या मैं ..
बीच में कहीं नहीं होती ...
क्या मैं ..
जवाब देंहटाएंबीच में कहीं नहीं होती ...
एक बेहद उम्दा प्रश्न उठाती रचना
यही तो चाहत है केवल एक स्त्री की उसे भी लोग एक इंसान समझे भगवान नहीं इतना ही काफी है उसके लिए ...सार्थक एवं सारगर्भित पोस्ट
जवाब देंहटाएंसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंhttp://madan-saxena.blogspot.in/
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