दलित चेतना
धूल धूसरित इंसान को
देने मुख्य धारा
कौन सी गंगा निर्मल हुयी
बुधवा की बेटी से
कब निकली गोबर की महक
गाव के लंबरदारी छिछोरों ने
कब उसके तार तार कुरते में नहीं झांका
धनिया
मैला ढोने नहीं आयी क्या ?
नत्थू की अम्मा
ठकुराइन को
तेल लगाने नहीं आयी क्या ?
चक्कू नाई
बोदी पहलवान की मालिश नहीं कर गया क्या ?
बटाई का बराबर हिस्सा मिला ननकू को ?
रधिया काम से
बिना नुचे लौट आयी क्या ?
फुलवा का प्रसव
ब्लेड से नहीं जना क्या ?
खुदाबक्स ने
ठाकुर साहब की चौपार की घास नहीं छीली क्या ?
नन्हें ने मरे बैल की
खाल नहीं उतारी क्या ?
काकू का टिकट कलक्टर बेटा
कब से
गाँव नहीं आया
दनिया के बेटे को बाप का नाम देने
..........
चेतना
चाहे दलित की हो या
हाशिये पर पड़े लोगों की
मात्र
मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
युग परिवर्तन की सोच है
दूर तक घर कर गयी
सड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है
और जब
सब कुछ बदल जाए तो
ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए
इसमें छिपी बू भी
हां बू भी ..
निकलनी चाहिए .
-कुश्वंश
झकझोर देने वाली रचना ..... बहुत खूब ..... एक दो जगह टाईपिंग की गलती दिखती है कृपया ठीक करें ...
जवाब देंहटाएंयह कविता बहुत से प्रश्न छोड़ती है ..... बहुत बढ़िया ।
1-ब्लेड से नहीं जाना क्या ? यहाँ जाना की जगह शायद जना शब्द होगा ।
2- घास नहीं छोली क्या ? छोली -- छीली
3 -कब से गाव नहीं आया ॥ गाव - गाँव
4- हासिये पर पड़े लोगों की --- हासिये -- हाशिये
संगीता जी आपकी सदस्यता का आभारी, आपके बहुमूल्य संपादन का आभार
हटाएंबड़े कड़े शब्दों में आज के समाज की तस्वीर रखी हैं आपने सामने
जवाब देंहटाएंदलित भी एक इंसान हैं ...ये अब सबको समझना होगा ...
मेरी टिप्पणी कहाँ गयी ?
जवाब देंहटाएंसंगीता जी आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का इंतज़ार है , अभिवादन
हटाएंटिप्पणी तो आपने स्पैम से निकाल ही दी है .... मुझे यह रचना बहुत अच्छी लगी
हटाएं'jiske kathni aur karni alag alag hai aur jo is desh ke karndhar bane baithe hain" apke sabda un kano tak pahuchega tabhi parivartan hoga. Ek aasha hai
जवाब देंहटाएंचेतना
जवाब देंहटाएंचाहे दलित की हो या
हासिये पर पड़े लोगों की
मात्र
मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
युग परिवर्तन की सोच है
दूर तक घर कर गयी
सड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है
और जब
सब कुछ बदल जाए तो
ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए
इसमें छिपी बू भी
हां बू भी ..
निकालनी चाहिए ... बेजोड़
चेतना
जवाब देंहटाएंचाहे दलित की हो या
हासिये पर पड़े लोगों की
मात्र
मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
युग परिवर्तन की सोच है
....अंतस को झकझोरती बहुत सटीक अभिव्यक्ति...
चेतना
जवाब देंहटाएंचाहे दलित की हो या
हासिये पर पड़े लोगों की
मात्र
मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
युग परिवर्तन की सोच है
गहन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
'दलित' शब्द के बारे में मेरे विचार आपकी अनुभूतियों से मेल खाते हैं.
जवाब देंहटाएंआपके शब्द-शब्द में गहन पीड़ा भरी है.
काश, समाज में विद्यमान सारी विषमताएं इकसार हो जाएँ... तो कितना अच्छा हो!!
sashkt prastuti sir..
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 30-08 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....देख रहा था व्यग्र प्रवाह .
दूर तक घर कर गयी
जवाब देंहटाएंसड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है
और जब
सब कुछ बदल जाए तो
ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए
इसमें छिपी बू भी
हां बू भी ..
निकालनी चाहिए .
बहुत सुन्दर सोच और एक नयी दिशा की ओर सन्देश देती रचना
आज की कविता है ... समसामयिक भी और सार्थक प्रश्न भी उठाती है
जवाब देंहटाएंबधाई इस कविता के लिए !
मन को छू गई..गहन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंकुश्वंश जी ,
जवाब देंहटाएंमेरा मेल आई डी -
sangeetaswarup@gmail.com
पुस्तक के लिए बाकी सूचना मेल में दूँगी ॥ आभार ।
दिल को झकझोर कर नया सोचने पर विवश कर देती है बधाई
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