महेश कुशवंश

29 अगस्त 2012

दलित चेतना



कितनी  जाग्रत हुयी
दलित चेतना 
धूल धूसरित  इंसान को 
देने मुख्य धारा 
कौन सी गंगा निर्मल हुयी 
बुधवा की बेटी से 
कब निकली  गोबर की महक 
गाव के लंबरदारी छिछोरों  ने 
कब उसके तार तार कुरते में नहीं झांका 
धनिया 
मैला ढोने नहीं आयी क्या  ?
नत्थू  की अम्मा 
ठकुराइन को 
तेल लगाने नहीं आयी क्या ?
चक्कू नाई 
बोदी पहलवान की मालिश नहीं कर गया क्या ?
बटाई का बराबर हिस्सा  मिला ननकू को  ?
रधिया काम से 
बिना नुचे लौट आयी क्या ?
फुलवा का प्रसव 
ब्लेड  से नहीं जना क्या ?
खुदाबक्स  ने 
ठाकुर साहब की चौपार की घास नहीं छीली क्या  ?
नन्हें ने मरे बैल की 
खाल नहीं उतारी क्या ?
काकू का टिकट कलक्टर बेटा 
कब से   गाँव  नहीं आया 
दनिया के बेटे को बाप का नाम देने 
..........
चेतना 
चाहे दलित की हो  या 
हाशिये पर पड़े लोगों की 
मात्र 
मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं 
युग परिवर्तन की सोच है 
दूर तक घर कर गयी 
सड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है 
और जब 
सब कुछ बदल  जाए तो 
ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए 
इसमें छिपी बू भी
हां बू भी ..
निकलनी चाहिए .

-कुश्वंश 



18 टिप्‍पणियां:

  1. झकझोर देने वाली रचना ..... बहुत खूब ..... एक दो जगह टाईपिंग की गलती दिखती है कृपया ठीक करें ...

    यह कविता बहुत से प्रश्न छोड़ती है ..... बहुत बढ़िया ।

    1-ब्लेड से नहीं जाना क्या ? यहाँ जाना की जगह शायद जना शब्द होगा ।

    2- घास नहीं छोली क्या ? छोली -- छीली

    3 -कब से गाव नहीं आया ॥ गाव - गाँव

    4- हासिये पर पड़े लोगों की --- हासिये -- हाशिये

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    1. संगीता जी आपकी सदस्यता का आभारी, आपके बहुमूल्य संपादन का आभार

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  2. बड़े कड़े शब्दों में आज के समाज की तस्वीर रखी हैं आपने सामने
    दलित भी एक इंसान हैं ...ये अब सबको समझना होगा ...

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  3. उत्तर
    1. संगीता जी आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का इंतज़ार है , अभिवादन

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    2. टिप्पणी तो आपने स्पैम से निकाल ही दी है .... मुझे यह रचना बहुत अच्छी लगी

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  4. 'jiske kathni aur karni alag alag hai aur jo is desh ke karndhar bane baithe hain" apke sabda un kano tak pahuchega tabhi parivartan hoga. Ek aasha hai

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  5. चेतना
    चाहे दलित की हो या
    हासिये पर पड़े लोगों की
    मात्र
    मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
    युग परिवर्तन की सोच है
    दूर तक घर कर गयी
    सड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है
    और जब
    सब कुछ बदल जाए तो
    ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए
    इसमें छिपी बू भी
    हां बू भी ..
    निकालनी चाहिए ... बेजोड़

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  6. चेतना
    चाहे दलित की हो या
    हासिये पर पड़े लोगों की
    मात्र
    मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
    युग परिवर्तन की सोच है

    ....अंतस को झकझोरती बहुत सटीक अभिव्यक्ति...

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  7. चेतना
    चाहे दलित की हो या
    हासिये पर पड़े लोगों की
    मात्र
    मस्तिस्क झकझोरने की कला नहीं
    युग परिवर्तन की सोच है
    गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  8. 'दलित' शब्द के बारे में मेरे विचार आपकी अनुभूतियों से मेल खाते हैं.
    आपके शब्द-शब्द में गहन पीड़ा भरी है.
    काश, समाज में विद्यमान सारी विषमताएं इकसार हो जाएँ... तो कितना अच्छा हो!!

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  9. दूर तक घर कर गयी
    सड़ी गली प्रथा बदलने की सोच है
    और जब
    सब कुछ बदल जाए तो
    ये दलित शब्द भी बदलना चाहिए
    इसमें छिपी बू भी
    हां बू भी ..
    निकालनी चाहिए .
    बहुत सुन्दर सोच और एक नयी दिशा की ओर सन्देश देती रचना

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  10. आज की कविता है ... समसामयिक भी और सार्थक प्रश्न भी उठाती है
    बधाई इस कविता के लिए !

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  11. मन को छू गई..गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  12. कुश्वंश जी ,

    मेरा मेल आई डी -

    sangeetaswarup@gmail.com

    पुस्तक के लिए बाकी सूचना मेल में दूँगी ॥ आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  13. दिल को झकझोर कर नया सोचने पर विवश कर देती है बधाई

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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