महेश कुशवंश

14 जुलाई 2012

अनगिनित प्रश्न



चलो
में  अपनी
हथेली काट लेता हूँ
निकलते  रक्त से
हल कर लेता हूँ
सारे सवाल
दहक  रहे   जो
हमारे ह़ी
अप्रायोगिक मस्तिस्क में
अनगिनित प्रश्न
जो मान लेते है मुझे घोर असफल
और बार-बार
धकेलते है मुझे
कभी रस्सी और पंखे की ओर
और कभी
भारीभरकम रेल की पटरियों की ओर
में देख  रहा  हूँ
खून से लथपथ
बूढ़ी आँखों की रोशनी
पत्नी और मासूम बचपन  के
रक्तरंजित आँसू
अपनी लम्बी खिची जबान से
अबोले प्रश्न 
क्षतविक्षत शरीर के टुकड़े
बोरों में भरते
या फिर
डंडे से समेटते सुरक्षा के रखवाले
और उन्ही किन्ही टुकड़ों में
फैले है मेरे भी प्रश्न
हल की तलाश में
जिसके लिए मैंने ये सब किया था
मेरा जीवन का खोना भी
किसी प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ
उन्ही अनुत्तरित प्रश्नों को लेकर
में  निकल पड़ा हूँ
फिर गंतव्य की ओर
इस आशा के साथ कि शाम को
लौटूंगा
नयी आशा और उमंगों के साथ .

-कुश्वंश



13 टिप्‍पणियां:

  1. नयी आशा और उमंग के साथ लौट आना ही जीवन है... गहन भाव... आभार

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  2. मार्मिक रचना...पर नयी आशा और उमंग के साथ लौटना ही सही है..

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  3. मर्मस्पर्शी प्रभावी रचना....
    सादर।

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  4. कल 15/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. निराशाज़नक वातावरण में आशा बनाये रखना भी साहसिक कार्य है .

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  6. गहन अभिव्यक्ति....
    निराशा में छुपी आशा को खोजना ही तो जीवन है....

    अनु

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  7. गहन भाव लिए ... उत्‍कृष्‍ट लेखन

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  8. मार्मिक भाव । सुन्दर अभिव्यक्ति

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  9. उन्ही अनुत्तरित प्रश्नों को लेकर
    में निकल पड़ा हूँ
    फिर गंतव्य की ओर
    इस आशा के साथ कि शाम को
    लौटूंगा
    नयी आशा और उमंगों के साथ .

    ....बहुत मर्मस्पर्शी...एक नयी आशा जगाती सुन्दर भावाभिव्यक्ति...

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  10. उफ़ ...मार्मिक ..दिल के दर्द को लिख दिया गया हैं शब्दों में ढाल के

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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