महेश कुशवंश

3 फ़रवरी 2012

मेरा नाम













कभी कभी
अन्दर से निकल कर
जब मैं  
बाहर आ जाता हूँ
तो स्वयं को पहचान ही नहीं पाता हूँ
खो जाती है मेरी पहचान
वो जो
कभी तुमने
कभी औरों ने दी
मैं तो बस इसके उसके
मुह को ताकता हूँ
और गुजारिश करता हूँ
मुझे देदो कोई नाम
जो सिर्फ मेरा अपना हो
और मैं
कभी स्कूल बस के पीछे भागता हूँ
कभी मोहल्ले की उस 
कोने वाली लडकी  के पीछे
और  चांटे खाकर
थका हारा  
किसी और के पीछे भागता हूँ
कालांतर में
आटा दाल के पीछे
और उसके बाद
भावनाओं के समुन्दर  में
बच्चो की दया के   पीछे
पत्नी भी घिसटती है साथ साथ
मै नाम पूछता हूँ
वो विद्रूप हंशी हंसती है
मगर मेरा नाम नहीं बताती
जानते हुए भी
मन ही मन
कई बार बुदबुदाती है
और अन्दर ही अन्दर  कई बार बोलती है
खपच्चियों में कसा
एक नर कंकाल
जिसके सैकड़ों नाम है
मगर असल में कोई नहीं
नर कंकाल भी नहीं .

-कुश्वंश





24 टिप्‍पणियां:

  1. कटु सत्य की बहुत सुंदर रचना,बेहतरीन प्रस्तुति,

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति...खोजने पर भी नाम नहीं मिलता|

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  3. गहन भाव लिए हुए..
    सार्थक प्रस्तुति..

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  4. सुंदर एवं गहन अभिव्यक्ति...

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  5. http://aapki-pasand.blogspot.com/2012/02/blog-post_03.html

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  6. जिसके सैकड़ों नाम है
    मगर असल में कोई नहीं
    नर कंकाल भी नहीं .
    यही सच्चाई है... गहन अभिव्यक्ति... आभार

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  7. बेह्द गहन अभिव्यक्ति।

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  8. सुंदर, गहन विचार लिये
    सार्थक प्रस्तुती ....

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  9. गहन भाव लिए बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  10. बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
    अभिव्यक्ति.......

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  11. अपनी पहचान को पहचानना ज़रूरी है ।

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  12. कालांतर में
    आटा दाल के पीछे
    और उसके बाद
    भावनाओं के समुन्दर में.यही तो जीवन कि सच्चाई है।

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  13. मन तो एक ही होता है , दस बीस तो नही । आपकी कविता मन के संबेदनशील तारों को झंकृत कर गई । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद । .

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  14. सच्चाई बयां करती कविता

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  15. बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,

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  16. अनुपम भाव संयोजन के साथ बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  17. खपच्चियों में कसा
    एक नर कंकाल
    जिसके सैकड़ों नाम है....
    अद्भुत भावसंयोजन.. हतप्रभ करती विचार शृंखला....
    सादर.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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