महेश कुशवंश

21 जनवरी 2012

रेत के महल


नींद कभी आती है क्या
नीद तो कही आसपास ही छुपी होती है
और गाहे बगाहे
आगोश में ले लेती  है
बिना तुमसे पूंछे
तुम्हे सोना है क्या....?
कोई और पूंछता है
सो गए हो क्या ?
और तुम खोल देते हो आँख  
नहीं
मै सो नहीं रहा था
हालाँकि तुम्हारा मुस्कुराना
मझे अहसास करा जाता है
मैंने पकड़ा हुआ झूठ बोला था
ऐसे ही छोटे छोटे झूठ
न जाने कितने बोलते है हम दिन प्रतिदिन 
जिन्हें न भी बोलते तो
दुनिया यूं ही चलती रहती
निर्बाध  
सम्बन्ध कितने भी पुख्ता क्यों न हों
झूठ पर कभी नहीं टिकते
कभी न कभी दरकते ही हैं
और जब दरकते है तो
वो छोटा सा झूठ भी
मुझ पर हँसने से नहीं चूकता
जिसका मेरी नजरों में कोई वजूद ही नहीं था
असमय की  
ये नींद भी गैर जरूरी होती है
द्रोपदी को यदि नहीं आती तो
अभिमन्यू चक्रविहू से बाहर आ जाता
और शायद तब  
महाभारत का कथ्य ही बदल जाता
धर्मराज युधिस्ठिर ने
गर न बोला होता अस्वस्थामा का झूठ  तो
द्रोणाचार्य के कहर से
पांडवों को कौन बचा पाता
शायद चक्रधारी  कृष्ण  भी नहीं
और शायद तब
छोटे छोटे झूठों से पडी नीव पर
बड़े झूठों की अट्टालिकाएं न खड़ी होती
हम भी ईमानदार होते और
हमारी संतति भी  
रेत के  महल नहीं बनाती.....

-कुश्वंश

   


28 टिप्‍पणियां:

  1. बहोत अच्छे ।
    नया ब्लॉग
    http://hindidunia.wordpress.com/

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  2. बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति...

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  3. सार्थक अभिव्यक्ति..
    उत्कृष्ट रचना..
    सादर.

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  4. बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति....

    जवाब देंहटाएं
  5. अत्यंत लाजवाब हैं...वाकई उम्दा रचना से अवगत करने का आभार |

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  6. नींद का आना भी ज़रूरी है ।
    लेकिन गैर वक्त पर आना मुश्किलें पैदा कर देता है ॥
    इसे हमारी भाषा में नार्कोलेपसी कहते हैं ।

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  7. नींद आने के लिए याद ही काफी है तेरी ...
    शुभकामनायें !

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  8. सम्बन्ध कितने भी पुख्ता क्यों न हों
    झूठ पर कभी नहीं टिकते
    कभी न कभी दरकते ही हैं... फिर भी झूठ की नींव पर संबंधों के महल बनाये जाते हैं --- झूठ के सीमेंट , झूठ के बालू ... सब झूठ ! दरकने की परवाह कहाँ ?

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  9. अच्छी प्रस्तुति है कुश्वंश जी.
    कहाँ की बात को कहाँ जोड़ा है आपने.
    कभी कभी प्रभु को भी तो झूँठ मंजूर है जी.
    अधर्म के विरुद्ध,धर्म की स्थापना के लिए.

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  10. बहुत गहरे भाव लिए लिखी गई कविता

    झूठ की आँधियों में उड़ गए सब रिश्ते
    रहे गए हम अकेले ,यूँ ही अपनी खरोंचो के साये में .......अनु

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  11. अत्यंत सुन्दर चित्रण आपकी सभी रचनाएँ अनमोल हैं, टिपण्णी करने से डर लगता है

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  12. छोटे छोटे झूठों से पडी नीव पर
    बड़े झूठों की अट्टालिकाएं न खड़ी होती
    हम भी ईमानदार होते और
    हमारी संतति भी
    रेत के महल नहीं बनाती.....

    behad prabhavshali aur prernatmk rachana .....gambhir chintan se sarabor....badhai Kusvsnsh ji

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  13. आपकी रचना लाजवाब है...शब्द और भाव बेजोड़...वाह...

    नीरज

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  14. सम्बन्ध कितने भी पुख्ता क्यों न हों
    झूठ पर कभी नहीं टिकते
    कभी न कभी दरकते ही हैं

    लाजवाब अभिव्यक्ति

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  15. हम भी ईमानदार होते और
    हमारी संतति भी
    रेत के महल नहीं बनाती.....

    बहुत गंभीर सार्थक चिंतन...
    सादर बधाई...

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  16. झूठ पर सम्बन्ध दरक ही जाते हैं .. सार्थक रचना

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  17. बढ़िया कविता... नए प्रश्न उठाती...

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  18. झूठ पर संबंध नहीं टिकते।
    सार्थक संदेश देती अच्छी रचना।

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  19. "सम्बन्ध कितने भी पुख्ता क्यों न हों
    झूठ पर कभी नहीं टिकते
    कभी न कभी दरकते ही हैं"
    सार्थक व सुंदर अभिव्यक्ति ।

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  20. "छोटे छोटे झूठों से पडी नीव पर
    बड़े झूठों की अट्टालिकाएं न खड़ी होती"
    लाजवाब....।

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  21. गहरे भावो से लिखी गयी सुन्दर और बेहतरीन रचना है...

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  22. आदरणीय कुश्वंश जी
    आज अपने ब्लॉग के सर्च से "रेत के महल" से गूगल जी ने यहाँ लिंक दिया - यह वाली कविता पढ़ी नहीं थी |

    कृपया सुधर कर लीजिये - अभिमन्यु की माँ सुभद्रा हैं | सुभद्रा जी के गर्भ में उन्होंने अपने पिता अर्जुन से चक्रव्यूह में जाना सीखा था - और नींद सुभद्रा को आई थी - द्रौपदी को नहीं |

    अच्छी कविता :)

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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