महेश कुशवंश

7 जनवरी 2012

मै समय हूँ


मै समय हूँ
तुम्हारे आस-पास रहता हूँ
तुम्हारे साथ चलता हूँ  
तुम्ही
कभी पीछे रह जाते हो 
और 
अपराधबोध से ग्रसित हो जाते हो  
कभी आगे निकल जाते हो  अतिरेक में
तब मुझे तलासते हो  
शून्य में
इस सब में 
मै जिम्मेदार कहाँ हूँ  
कैसे दोषी हूँ मै  
तुम कहते  हो  
मैं बीतता हूँ  
दर-असल मै नहीं तुम बीत रहे हो  
वर्ष प्रतिवर्ष 
कम हो रही तुम्हारी उम्र 
मै तो अछुन्य हूँ 
तुम्हारी आत्मा की तरह 
जिसके तुम्हें छोड़ने पर भी 
मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा 
तुम हो की मुझे कभी  
अच्छा कहते हो कभी खराब 
अपनी भौतिकता के तराजू में तौलते हो मुझे 
अपने कार्यों का प्रतिफल
समय पर थोप देते हो 
और बचने की नाकाम कोशिश करते हो 
तुम्हे याद है
जब तुमने मुझे नहीं खोजा था
किसी के लिए
समय की 
कोई  सीमा थी ही नहीं 
तब  
इंसानी रिश्ते,
अनगिनित कोमल भावनाएं 
सामूहिक सोच की परम्परा 
समाज  के दुखों को  आत्मसात करने की कला
असभ्य युग में भी   
रस्सी की तरह कसी, गुथी थी  
पेड़ पौधे
नदी तालाब और 
पत्थरों में भी 
रिश्ते ढूँढने की कला 
खोज ली थी तुमने  
मुझे खोजा  एक माध्यम सा 
और अपना सारा दोष
मुझ पर मढ़ दिया 
सिर्फ मुझ पर 
मगर मै अब भी 
तुम्हारे पास ही खड़ा हूँ 
तुम्हारे सारे दोष 
अपने ऊपर लेने  
इसलिए कि कभी तो समझ सको तुम मुझे
मै मात्र समय हूँ 
बस.....

-कुश्वंश

 

24 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    सार्थक कविता..
    बहुत खूब.

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  2. Apne karyo ka pratifal
    Samay par thop dete ho
    Aur bachne ki nakam koshish karte ho......
    Apna sara dosh mujh par madh dete ho.
    Bahut hi bhav purna sach ko anubhut karane wali Rachna

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  3. मगर मै अब भी
    तुम्हारे पास ही खड़ा हूँ
    तुम्हारे सारे दोष
    अपने ऊपर लेने
    इसलिए कि कभी तो समझ सको तुम मुझे
    मै मात्र समय हूँ
    बस.....sach hi to kaha samay ne

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  4. समय जैसे शक्तिशाली माध्यम के साथ चलना ही हितकर है ।
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति है । बधाई ।

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  5. वाह समय की अबोली व्यथा को शब्द दे दिये।

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  6. दर-असल मै नहीं तुम बीत रहे हो
    वर्ष प्रतिवर्ष
    कम हो रही तुम्हारी उम्र
    मै तो अछुन्य हूँ
    तुम्हारी आत्मा की तरह
    जिसके तुम्हें छोड़ने पर भी
    मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा

    ...वाह! बहुत गहन चिंतन...लेकिन कहाँ सुन पाते हैं हम समय की आवाज...बहुत सुन्दर

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  7. वाह बहुत खूब.बिलकुल सही कह रहे है आप. समय तो बस समय है.

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  8. Compare-

    क्या है समय,
    घडी की माप?
    पल- विपल
    गणना या चाप?

    जब घडी नहीं थी
    घड़ीसाज नहीं था.
    नहीं था कैलेंडर
    औ पंचांग नहीं था.

    जब नहीं थी नदी
    और पर्वत नहीं था.
    पृथ्वी - पवन -
    आकाश नहीं था,
    सोचो! तब भी
    क्या 'समय '
    विद्यमान नहीं था?

    भूत-भविष्यत्-
    और वर्तमान
    ये तो दृश्य हैं,
    काल खण्ड हैं.
    समय तो है -
    इन सबका 'द्रष्टा'.
    समय ही है -

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  9. achhi hai rachna ,
    एक नए ब्लागर के लिए लिखने से अधिक पढ़ना सुविधाजनक होता है.
    हिंदी में टिप्पणी करना भी अभी कठिन है.

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  10. उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
    बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार

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  11. सही तो कह रहा हे समय।
    बहुत अच्छी कविता।

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  12. जैसी चले व्यार पीठ तब तैसी कीजे,..बहुत बढिया सार्थक प्रस्तुति, सुंदर अभिव्यक्ति ......
    WELCOME to--जिन्दगीं--

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  13. bdhai smay ki shandar vyakhya hetu.mere blog par bhi aayen sda svagat hae.

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  14. तुम कहते हो
    मैं बीतता हूँ
    दर-असल मै नहीं तुम बीत रहे हो
    वर्ष प्रतिवर्ष

    बहुत अच्छी बात कह रहा है समय...सार्थक अभिव्यक्ति!

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  15. सार्थक प्रस्तुतिकरण...
    मेरे ब्लॉग का समर्थक बनने के लिए धन्यवाद
    http://vicharbodh.blogspot.com

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  16. रचना की बात सीधे दिल तक पहुँचती है।

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  17. सही है समय नहीं हम बीत रहे है, वह तो अक्षुण्य है आत्मा की तरह...

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  18. घड़ी रुके या साँस थमे, समय चले अविराम
    यह ना देखे रात , दिन,सुबह हुई या शाम.

    यथार्थवादी रचना,चिंतन को बाध्य करती हुई,उत्कृष्ट.

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  19. तुम कहते हो
    मैं बीतता हूँ
    दर-असल मै नहीं तुम बीत रहे हो
    वर्ष प्रतिवर्ष
    पूर्ण सत्य .....बेहतरीन
    vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....

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  20. हम हैं तभी समय की अनुभूति और गणना है. अन्यथा केवल हम ही होते हैं समय को कोसने के लिए जो हमारे बिना नहीं होता. सुंदर रचना.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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