महेश कुशवंश

24 जुलाई 2011

हे गाँव











हे गाँव
बस पहुचने वाली है 
अभिलाषित खुशहाली तुम तक 
एक नदी का सपना
जो  तुमने  सालों से देखा था
अब बाढ़ ने कर दिया है पूरा 
बस पहुचनेवाली है नावें तुम तक
देखना उतरने न पाए  बाढ़  
सस्ते घर की फ़ाइल  तैयार है 
शीघ्र ही  बनेगे घर
और बनेंगे  ही नहीं  मिलेंगे भी 
बस थोड़ी सी  जमीन 
तुम्हारे औद्योगिक विकास  के लिए लेंगे 
अधिग्रहित करेंगे 
तुम्हे, तुम्हारे पेट भर 
देंगे मुआवजा 
बिल्डरों को देनी है 
बनाने को कंक्रीट के जंगल
भले ही दब जाएँ उनमे
तुम्हारे पुस्त-दर-पुस्त जमे अरमान ,
तुम्हारी जमीन
जिसे तुम मान  बैठे हो माँ
तुम्हारे घर आयेंगे युवराज 
तुम्हारी खरहरी खटिया पर बैठकर 
तुम्हारे चूल्हे की रोटी-दाल खायेंगे 
तुम्हारे बच्चे को गोद में बैठा लेंगे
तू जान ही नहीं पाओगे उनका मन
बस !
तुम धन्य हो जाना
भूल जाना अभावों का दर्द 
तुम्हारी अंतिम परिणति  आत्महत्या  को 
और  बना  देंगे आसान
तुम्हे और क़र्ज़ दिलाएंगे
कर्ज माफी की बंदरबांट
कुछ और विस्तार लेगा
उसे कुछ और व्यवस्थित कराएँगे
सरल बनायेंगे  
और हाँ ...
गाँव के बीचोबीच 
बना रहे है आत्महत्या पोल
लटका देंगे बहुत सारी रस्सियाँ 
ताकि तुम्हे छिप के न मरना पड़े 
परियोजना में  सक्रिय है कई स्वयंसेवी संस्थाएं
तुम्हारी जमीने  लेंगे 
तो तुम्हे देंगे शहर की समृधि 
शहरी रोजगार के नए आयाम
रिहायसी फ्लाटों में  
ठेलों से  
तुम्ही तो पहुचाओगे  सब्जी
सायकिल बंधे डिब्बों में
बांटोगे दूध  
तुम्हारी औरते 
घरों में  मांजेंगी बर्तन
धोएंगी कपडे ,
बनायेंगी खाना  
वाह ... 
कितनी बढेंगी रोजगार की संभावनाएं
गाँव में  कुछ मिलता भी था 
यहाँ  सब  मिलेगा 
बड़े बड़े कामनवेल्थ गेम्स
बड़ी बड़ी सड़कें
अंग्रेजी शराब
चकमक माल
सतरंगी सिनेमा
तुम्हारी जमीन गयी तो  क्या 
तुम्हे शहर तो मिला 
वरना वही गाँव में  क्या कर पाते 
सरकारी दया के सौ रुपयों 
अम्मा की विधवा पेंसन
बाढ़ और आग में सहायता
जननी की सुरक्षा
प्रधान, लेखपाल और तहसील के चक्कर लगाते
भाग  दौड़ में मर जाते
जो करते रहे तुम्हारे पुरखे
तुम करते 
और विरासत में यही सब कुछ
अनपढ़ पुत्र को भी दे जाते .


-कुश्वंश  

18 टिप्‍पणियां:

  1. कविता में गांव की पीड़ा साकार हो गई है।

    युवराज की अच्छी खबर ली है आपने।

    इस यथार्थवादी रचना के लिए आभार कुश्वंश जी।

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  2. गाँव के दर्द,पीड़ा और समस्याओं को बखूबी आपने दर्शाया है....
    सुन्दर कटाछ,और एक कटु सत्य से रूबरू भी कराया है....
    अच्छा लगा आपको पड़कर...

    सदर

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  3. ओह! बहुत मर्मस्पर्शी है आपकी यह सुन्दर अभिव्यक्ति.
    गावँ की पीड़ा का यथार्थ चित्रण करती हुई.
    बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर फिर आईयेगा.

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  4. सच है , हमारे गाँव आज भी विकास के इंतजार में एडी उठाये देख रहे हैं . और सब अपना घर भरने में लगे हैं .

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  5. विकास की चक्की में पिसते हुए ग्रामीण जीवन की मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..बहुत सुन्दर

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  6. यथार्थ और पीडा का सटीक चित्रण किया है।

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  7. pahle hi dasha kharaab thi ab to durdasha ho gai.haay gaon ki kismat.achchi vyangyaatmak rachna likhi hai.aapko badhaai.

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  8. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग इस ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो हमारा भी प्रयास सफल होगा!

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  9. मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति....

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  10. बहुत ही मार्मिक अभिवयक्ति...

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  11. गांवों के पीड़ा का सच्चा वर्णन,
    साभार,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  12. मर्म पर चोट करती तीखी रचना...
    पढ़ते हुए अनेक पंक्तियों ने हाथ पकड़कर अपने पास रोक लिया...
    मेरे साथ शब्द भी मौन हैं....
    सादर....

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  13. अपने गावों का सच पढ़ कर ...आँखे नम हुई ....ये ही सब कुछ हो रहा है आजकल

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  14. मर्मस्पर्शी रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  15. किसानो के दर्द को बहुत संवेदनशीलता से लिखा है ..

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  16. समसामयिक और संवेदनशील रचना

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  17. Kosi ki tabahi yaad dila di aapne . abhi tak bharpaayi nahi ho saki hai aur sarkar vahi apna kaam dikha rahi hai .

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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