महेश कुशवंश

19 जून 2011

हमारे दोनो



तुम्हें जन्म देने की प्रक्रिया में ही नहीं,
तुम्हें लम्बे समय तक
अपने उदर का हिस्सा बनाने  तक,
माँ का अविश्मरणीय योगदान
तुम्हारी आँखों में 
श्रद्धा और सन्मान
कभी कम नहीं होने देता,
तुम्हारे सुख-दुःख की
सोते जागने परवाह करने वाली माँ,
भले ही नेपथ्य में चली गयी हो,
तुम्हे याद रहे न रहे ,
आज भी तुम्हे  घेरती है
तुम्हारे शरीर का "औरा" बनकर,
और तुम बचे रहते हो अनगिनित रोगों से,
बकौल माँ
अच्छी बुरी नज़रों से, 
देखो
बंद आँखों से
तुम्हे घूरती मिलेंगी दो आँखे,
सिले हुए होंठ,
बढे हुए हाँथ,
चाहत के लिए नहीं
तुम्हे अंक में भरने के लिए,
और देख सको तो
देखो वो दूर   
कुछ   दूर,
तुम्हारी तरफ पीठ किये हुए
मिल जायेंगे तुम्हारे पिता,
तुम्हारे कन्धों को मजबूती देने के लिए
अपने आंशू पोंछते हुए,
वो आंशू
जो कभी नहीं देख पाए तुम,
तुम्हे   देखने ही नहीं  दिए गए
तुम्हे दुखों से बचाने की  चाहत जो थी,
माँ आखिर माँ होती है ,
एक ममतामयी,
उसको नकार सकता है कौन ?
क्या पिता नहीं होता माँ की तरह पितामयी ?
किसने बना दी ये दूरियां
माँ और पिता के बीच
हो सके तो ख़त्म कर दो इन्हें
जिससे रह सके  वो  जो है  सदियों से है  एक, 
एक होकर
हमारी तुम्हारी 
सबकी नज़रों में  .

=कुश्वंश



   

14 टिप्‍पणियां:

  1. आज भी तुम्हे घेरती है
    तुम्हारे शरीर का "औरा" बनकर,gr8 panktiyaan

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  2. कुश्वंश जी, कविता प्रवाहमयी है...

    सभी की अपनी-अपनी पहचान है. कुछ ममता लुटाने के लिये मशहूर हैं तो कुछ गुप्तभाव से कर्तव्य निभाने के लिये.
    कुछ रो-रोकर हल पाना चाहते हैं. कुछ परेशानियों में भी हँसकर परिणामों की प्रतीक्षा करते हैं.
    कहीं माता अपनी कोमलता के लिये विख्यात है तो कहीं पिता अपने अनुशासन के लिये कुख्यात है.
    कहीं-कहीं उलट भी है.
    फिर भी ... दोनों की उपस्थिति से ही संतान का समुचित विकास होता है.
    .
    .
    .
    .
    आज़ फालतू के 'डे' चलन में अधिक आ गये हैं. संस्कारों से जिन भावों की विदाई हो गई है वे आज़ 'वार्षिक दिवस' के रूप में घसीटे जा रहे हैं.
    आज़ भौतिक वस्तुओं के इर्द-गिर्द ही अधिकांशतः नयी पीढी की भावनाएँ नर्तन करती देखी जा सकती हैं.

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  3. फिर भी -------

    गोद बिठाते ही दिया आँख में अंगुली डाल

    जग में ऐसी लरिकई, करते खड़े सवाल

    करते खड़े सवाल, संभल कर रहना भाई

    यही आँख का नूर, आँख से नीर बहाई

    कह 'रविकर' कविराय, पोसिये दिल से बच्चा

    करिए कम उम्मीद, रखेंगे ईश्वर अच्छा

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  4. पितृ दिवस पर एक संवेदनशील रचना ।
    सच है मां के साथ पिता की भूमिका भी कम नहीं है ।
    काश कि आजकल के बच्चे यह समझ सकें ।

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  5. बहुत सुन्दर .. बेहतरीन

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  6. किसने बना दी ये दूरियां
    माँ और पिता के बीच
    हो सके तो ख़त्म कर दो इन्हें
    जिससे रह सके वो जो है सदियों से है एक,
    एक होकर
    हमारी तुम्हारी
    सबकी नज़रों में .

    बहुत अच्छी सोच......सार्थक लेखन .

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  7. क्या पिता नहीं होता माँ की तरह पितामयी ?
    किसने बना दी ये दूरियां
    माँ और पिता के बीच
    हो सके तो ख़त्म कर दो इन्हें

    जिससे रह सके वो जो है सदियों से है एक,
    एक होकर
    हमारी तुम्हारी
    सबकी नज़रों में .


    Bahut Sunder....... behtreen rachna

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  8. dil ko chooti hui rachna...
    bahut hi badi baat jo shayad pita kabhi nahi kehte na hi dikhate hain par sach kahoon to hum bacche bhi unki bhavnao ko samajhte hai aur unhe apni zindagi mein ek alag hi sthaan dete hain.

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  9. बहुत सकारात्मक सोच दर्शाती कविता ....... वैसे देखा जाये तो माता और पिता अलग नहीं है ,वो तो एक ही भाव के दो नाम हैं ,एक दूसरे के पूरक .......

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  10. क्या पिता नहीं होता माँ की तरह पितामयी ?
    किसने बना दी ये दूरियां
    माँ और पिता के बीच
    हो सके तो ख़त्म कर दो इन्हें
    जिससे रह सके वो जो है सदियों से है एक,
    एक होकर

    भावमय करते शब्‍दों के साथ अनुपम प्रस्‍तुति ।

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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