महेश कुशवंश

14 जून 2011

जीने का हक







किसी राख में
कब तक छिपी रहती है कोई चिंगारी,
किसे मालूम ? 
राख होने का दर्द  
एक चिंगारी ही सहेज सकती है
दावानल बनने तक,
हम समझ लेते है
राख है
बिखर जाएगी,
तेज हवाओं के थपेड़ों से
अणुओं में बदल जाएगी ,
और न याद रख पायेगी वो
कब और कैसे तब्दील हुयी
एक जीती-जागती,
कैसे ?
सोच लेते  है हम
राख में नहीं छिपी है कोई चिंगारी,
इस अ-नस्वर आत्मा
को नस्वर समझने की भूल
कैसे कर लेते है हम,
वही हवा
जो राख को बेखेरती है दूर तक,
दबी बुझी उस चिंगारी को
दावानल में बदल देती है ,
और राख हो जाते है
राह में पड़ने वाले सभी खेत-खलिहान
पशु-पक्छी इंसान,
चिंगारी  किसी में भेद नहीं करती,
उसे भी राख कर देती है  
जो राख को राख बनाने की
प्रक्रिया में मग्न रहे,
और वो भी जो मूक रहे 
ये समझ कर कि ये राख मेरे घर नहीं उड़ेगी,
प्रतिशोध लेती चिंगारी
याद नहीं रखती
प्रत्यंचा का दायरा,
पूरा परिवेश ही राख हो जाता है,
और हम सोचते ही रह जाते है
काश ! 
दबी चिंगारी देख पाते
तो उसे भी राख कर देते ,
एक बार भी
ये नहीं सोचते  
उस जीती-जागती को 
न होने देते राख,
दे  देते उसे भी
जीने का हक.

-कुश्वंश



16 टिप्‍पणियां:

  1. राख होने का दर्द
    एक चिंगारी ही सहेज सकती है...
    raakh ka dard chingari sang mahsoos kerna jab aa jaye tabhi zindagi shakl leti hai, bahut hi kareebi khyaal

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  2. हम समझ लेते है
    राख है
    बिखर जाएगी,
    तेज हवाओं के थपेड़ों से
    अणुओं में बदल जाएगी ,
    और न याद रख पायेगी वो
    कब और कैसे तब्दील हुयी
    एक जीती-जागती,
    कैसे ?
    सोच लेते है हम
    राख में नहीं छिपी है कोई चिंगारी,

    उड़ा न सके राख, दिल के जले की, बवंडर नकारे
    कोई ज्वार-भांटा न आया सदी से समंदर किनारे
    हारे को ' रविकर' कि जीता वही जो सिकंदर पुकारे
    चूँ-चूँ ने चोंचों से चुन-चुन के फेंके, जो जलते अंगारे
    धड़कने लगा दिल, न हिम्मत ये हारे न तुमको बिसारे

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  3. चिंगारियाँ बुझनी भी नही चाहिये। येही तो आगे बढने के लिये चुनौतियाँ देती हैं। अच्छी रचना। शुभकामनायें।

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  4. दबी चिंगारी देख पाते
    तो उसे भी राख कर देते ,
    एक बार भी
    ये नहीं सोचते
    उस जीती-जागती को
    न होने देते राख,
    दे देते उसे भी
    जीने का हक.

    बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..बहुत सुन्दर
    गहन चिन्तन के लिए बधाई।

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  5. प्रतिशोध लेती चिंगारी
    याद नहीं रखती
    प्रत्यंचा का दायरा,
    पूरा परिवेश ही राख हो जाता है,

    गहन चिंतन करती रचना

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत गहन चिन्तन के बाद उपजी है ये रचना …………गहरा प्रभाव छोडती है।

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  7. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति.. बहुत गहरे भाव व्यक्त करती रचना... शुभकामनायें.......

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  8. आदरणीय कुश्वंश जी आप ब्लॉग को Follow कर रहे हैं...मैंने अपने ब्लॉग के लिए Domain खरीद लिया है...पहले ब्लॉग का लिंक pndiwasgaur.blogspot.com था जो अब www.diwasgaur.com हो गया है...अब आपको मेरी नयी पोस्ट का Notification नहीं मिलेगा| यदि आप Notification चाहते हैं तो कृपया मेरे ब्लॉग को Unfollow कर के पुन: Follow करें...
    असुविधा के लिए खेद है...
    धन्यवाद....

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  9. और वो भी जो मूक रहे
    ये समझ कर कि ये राख मेरे घर नहीं उड़ेगी,
    प्रतिशोध लेती चिंगारी
    याद नहीं रखती ...

    very intense and written with a deep thought.
    Loved it.

    It was a nice read.

    जवाब देंहटाएं
  10. ये नहीं सोचते
    उस जीती-जागती को
    न होने देते राख,
    दे देते उसे भी
    जीने का हक.
    अत्यंत भावमय एवम उद्वेलित करने वाली रचना

    जवाब देंहटाएं
  11. वैसे भी चिंगारी का क्या कभी भी भड़क सकती है...
    अच्छा रचना...

    जवाब देंहटाएं
  12. दबी चिंगारी देख पाते
    तो उसे भी राख कर देते ,
    एक बार भी
    ये नहीं सोचते
    उस जीती-जागती को
    न होने देते राख,
    दे देते उसे भी
    जीने का हक.

    Bahut Sunder Sanvedansheel Bhav

    जवाब देंहटाएं
  13. थोडा सा सजग रहे तो बहुत सी अनहोनी से बचा जा सकता , बहुत से लोगों को बहुत से दुखों से बचाया भी जा सकता है । बस ज़रुरत है थोडा सा caring और considerate होने की , चीज़ों को वक्त से पहले ही पहचान लेने की । इससे पहले की कोई चिंगारी , ज्वाला बनकर सब कुछ खाक कर दे।

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  14. आपकी रचनाओं में एक वैचारिक शृंखला बनी देखता हूँ.
    "प्रतिशोध लेती चिंगारी
    याद नहीं रखती
    प्रत्यंचा का दायरा.."
    ........ इस पंक्ति पर बार-बार ध्यान अटक रहा है.. यहाँ प्रत्यंचा पर उलझ गया हूँ ...... मैं यहाँ 'प्रभाव' शब्द रखकर पढ़ रहा हूँ .. तो ठीक लगता है.
    वैसे 'प्रत्यंचा का दायरा' बोलने में तो अच्छा लग रहा है लेकिन बिम्ब पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है. यहाँ कुछ अधूरा-सा है.
    फिर भी गजब की रचना कहने में मुझे संकोच नहीं है.

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  15. दबी चिंगारी देख पाते
    तो उसे भी राख कर देते ,
    एक बार भी
    ये नहीं सोचते
    उस जीती-जागती को
    न होने देते राख,
    दे देते उसे भी
    जीने का हक.

    क्या बात है, बहुत सुंदर,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  16. प्रतुल जी आपकी बात बिलकुल सही है प्रत्यंचा शब्द अटपटा जरूर है मगर मैं उसे हटा नहीं पाया क्योंकि एक आक्रोश के चरमोत्कर्ष को यही शब्द उचित प्रतीत होता है. आपकी गहन अध्यन का कायल , आपका विश्लेषण मुझे शक्ति प्रदान करता है. आभार

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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