महेश कुशवंश

25 मई 2011

मुझे भूल ही जाओ













तुमने कहा
मुझे भूल जाओ,
ना  याद करो
ना  सपने  सजाओ, 
और ना ही
कोई कसक बनकर
मेरी आँखों में किरकिराओ,
.................
मैं ,
भूल जाउंगी
वैसे  ही जैसे,
कितनी ही  बार
भूल गए थे तुम ,
और मैं
तुम्हे याद में रखने का
उपक्रम करती रही थी सालों साल,
तुम्हारे
ओस भर पिघल जाने से,
कई बार पिघली थी  मै
तुम्हारे  आगोश में
बर्फ की सिल्ली  बनकर,
तुम्हारे गरजने भर से,
नाचने लगती थी मै
मोरनी बनकर ,
इस भ्रम मै की तुम
अब बरसे..तब बरसे,
तुम्हारी अंजुरी में बही हूँ
कई बार
नदी बनकर,
ये जानते हुए भी की
नदी के किनारे
कहाँ  मिलते  है कभी,
और शायद..!
सूखी नदी के किनारे ही नहीं होते,
आज मै ना वो पथिक हूँ
जो चिलचिलाती  धुप में
प्यास से
हो रहा हो व्याकुल,
और ना ही वो पपीहा
जो
पी कहाँ-पी कहाँ रटे
और  तोड़ दे दम,
मै पिघलती बर्फ भी हूँ,
बहती नदी भी,
चिलचिलाती धुप भी,
खुशनुमा सदी भी, 
किनारों का भय नहीं मुझे,
देख रही हूँ समुद्र,
जिसमे मै जा मिलूंगी,
और तुमसे कभी नहीं कहूँगी
मुझे भूलना मत ..,
बेशक
मुझे भूल जाओ,
अब तो मुझे भूल  ही जाओ .

-कुश्वंश






16 टिप्‍पणियां:

  1. आप स्त्री मन को बाखूबी उकेर लेते हैं.. ये अति संवेदनशीलता द्योतक है.

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  2. तुम्हारे
    ओस भर पिघल जाने से,
    कई बार पिघली थी मै
    तुम्हारे आगोश में
    बर्फ की सिल्ली बनकर,
    तुम्हारे गरजने भर से,
    नाचने लगती थी मै
    मोरनी बनकर ,
    इस भ्रम मै की तुम
    अब बरसे..तब बरसे,
    ...........
    किनारों का भय नहीं मुझे,
    देख रही हूँ समुद्र,
    जिसमे मै जा मिलूंगी,
    और तुमसे कभी नहीं कहूँगी
    मुझे भूलना मत ..,
    बेशक
    मुझे भूल जाओ,
    अब तो मुझे भूल ही जाओ ... samudra ki lahron ki tarah umadte bhaw

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  3. हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।

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  4. किनारों का भय नहीं मुझे,
    देख रही हूँ समुद्र,
    जिसमे मै जा मिलूंगी,
    और तुमसे कभी नहीं कहूँगी
    मुझे भूलना मत ..,
    बेशक
    मुझे भूल जाओ,
    अब तो मुझे भूल ही जाओ
    भावमय करते शब्‍दों के साथ बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
  5. मर्म भिंगो देने वाली रचना...

    पीड़ा शब्दों में ढल जीवंत हो उठी है...

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  6. बेनामीमई 26, 2011 3:01 pm

    बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  7. स्त्री मन की कोमल अनुभूतियों का सटीक चित्रण किया है।

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  8. कई बार पिघली थी मै
    तुम्हारे आगोश में
    बर्फ की सिल्ली बनकर,
    तुम्हारे गरजने भर से,
    नाचने लगती थी मै
    मोरनी बनकर ,
    इस भ्रम मै की तुम
    अब बरसे..तब बरसे,
    तुम्हारी अंजुरी में बही हूँ bahut umda rachna hai aapki....ye line bahut psnd aai...aabhar

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  9. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  10. मै पिघलती बर्फ भी हूँ,
    बहती नदी भी,
    चिलचिलाती धुप भी,
    खुशनुमा सदी भी,
    किनारों का भय नहीं मुझे,
    देख रही हूँ समुद्र,
    जिसमे मै जा मिलूंगी,
    और तुमसे कभी नहीं कहूँगी
    मुझे भूलना मत ..,
    बेशक
    मुझे भूल जाओ,
    अब तो मुझे भूल ही जाओ .

    ....आपकी रचना ने निशब्द कर दिया...नारी मन की व्यथा और उसकी शक्ति को भी बहुत खूबसूरती से उकेरा है..लाज़वाब प्रस्तुति..आभार

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  11. अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना ! नारी हृदय की वेदना को बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति दी है आपने !
    तुम्हे याद में रखने का
    उपक्रम करती रही थी सालों साल,
    तुम्हारे
    ओस भर पिघल जाने से,
    कई बार पिघली थी मै
    तुम्हारे आगोश में
    बर्फ की सिल्ली बनकर,

    अद्भुत भावभूमि पर लिखी अप्रतिम है यह रचना ! मेरी बधाई स्वीकार करें !

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  12. सभी सुधीजनों का हृदय से आभार विशेषकर आदरणीय शास्त्री जी का उनके आशीर्वचनों के लिए जिनका मुझे प्रतिदिन इंतज़ार रहता था

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  13. कोमल भावानुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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